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________________ में कवि ने लोक.मर्यादा के संरक्षण हेतु अनेक जिनका मन आतुर भया, ते भूपति नहि रंक । हितकारी नीति की बातें बताई हैं । कबीर, तुलमी । जिनका मन संतोष मैं, ते नर इन्द्र निसंक ।। रहीम, वृद और बिहारी के नीति विषयक दोहों की परम्परा में रचित इस खण्ड के दोहों पर भींग पूछ बिन बैल हैं, मानुष बिना बिवेक । संस्कृत के सुभाषितों की भी छाप है। पं०व० भख्य अभब समझे नहीं, भगिनी भामिनी एक।। नमिचन्द शास्त्री के अनुसार 'कतिपय दोहे तो ना जाने कुलशीलके, ना कीजै विश्वास । पंचतंत्र और हितोपदेश के नीतिश्लोकों का अनुवाद तात मात जात दुखी, ताहि न रखिये पास ।। प्रतीत होते हैं । तुलसी. कबीर और रहीम के दोहों से भी कवि अनागित सा प्रतीत होला गनिका जोगी भूभिपति, वानर अहि मंजार । "किन हम दोनों में कवि की प्रपनी मौलि. इनत राखें मित्रता, परै प्रान उरझार ।। कता भी स्पष्ट है। पारिभाषिक जैन शब्दों के अधिक सरलता सुखद नहिं, देखो विपिन निहार । प्रयोग द्वारा कवि ने सम्यक्त्व की महिमा, मिथ्याल सीधे बिरवा कटि गये, बांके खरे हजार ।। की हानि एवं चारित्र की महत्ता प्रतिपादित की है। साथ ही लोकोक्तियों और मुहावरों का दुगुण क्षुधा लज चौगुनी, अष्ट गुनौ विवसाय । प्रचुर प्रयोग किया है । एक-एक दोहे में जीवन काम वसु गुनी नारिक, वरन्यौ सहज सुभाय । को प्रगतिशील बनाने वाले अमूल्य सन्देश सरल भाषा में भरे हुए हैं। जिन्हें देखकर बिहारी कुर कुरूपा कल हिनी, करकस वैन कठोर । सतसई के सम्बन्ध में कही जाने वाली उक्तियां ऐसी भूतनि भोगिबौ, बसिवौ नरकनि धोर ।। बरबस याद आ जाती हैं। वास्तव में बुधजन नृपति निपुन अन्याय पैं, लोभ निपुन परधान । सतसई भी गागर में सागर है। इसके दोहों के चाकर चोरी मैं निपुन, क्यौं न प्रजा की हान । पठन और भनन से हृदय पूत भावनाओं से भर जाता है। उपयुक्त खण्डों के दोहों की बानगी विरगभावना प्रकरण में बुधजन ने संसार निम्नलिखित दोहों में देखी जा सकती है ---- की असारता का रोचक और सजीव चित्रण किया एक चरन हूं नित पढे, तो काट अज्ञान । है और कटु सत्य को प्रकट किया है। इस प्रसंग में निम्नांकित दोहे दृष्टव्य हैं - पनिहारी की लेज सौं, सहज कटै पाषान ।। पर उपदेश करन निपुन, ते तौ लखै अनेक । केश पलटि पलट्या वपू, ना पलटी मन बाँक । करै समिक बोलै समिक, ते हजार में एक ।। भुजैन जरती झूपरी, ते जर चुके निसांक ।। जो कुदेव को पूजिकै, चाहै शुभ का मेल । को है सुत को है तिया, का को धन परिवार । सो बालू को पेलिकै, काढ्या चाहे तेल ॥ पाके मिले सराय में, बिछुरेंगे निरधार ॥ परका मन मैला निरखि, मन बन जाता सेर।। परी रहैगी संपदा, धरी रहैगी काय । जब मन मांगे पानते, तब मन का है सेर ॥ छलबलि करि क्यों हु न बवै, काल झपट ले जाय ।। गति गति मैं मरते फिर, मनमैं गया न फेर। नि स सूते संपतिसहित, प्रात हो गये रंक । फेर मिटै ते मनतना, मर न दूजी बेर ॥ सदा रहै नहिं एकसी, निभै न काकी बंक ॥ महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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