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________________ करते हैं । दूसरी ओर सुभद्रा नाटिका और विक्रान्त कौरव दोनों के मंगलाचरण में भगवान आदिनाथ को स्मरण किया गया है। चारों ही नाटकों में मनुष्यों के साथ विद्याधरों का भी उल्लेख है । इतना ही नहीं कतिपय छन्द एक दूसरे नाटकों में ही हैं ।" ये समान छन्द अपने अपने स्थान पर इस प्रकार के प्रसंगों में उल्लिखित हैं जिससे ऐसा प्रभाव नहीं होता है कि दूसरे नाटक से लेकर इसमें जोड़े गये हों । सभी नाटकों की कथा वस्तु जैन पुराणों से उद्धृत है और इन सभी नाटकों की कथा चरित कथा के अन्तर्गत आती है । 10 चारों नाटकों की इन अनेक पारस्परिक समानता के रहते हुए चारों की कथा वस्तु भिन्न-भिन्न हैं और उनके क्रमिक विकास का ढंग 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. संस्कृत साहित्य का इतिहास - बलदेव उपाध्याय पृष्ठ 601; 602 संस्कृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ 359 ख्यातः पूर्वं जगति समरो मत्कृते भूपतीनाम् । काञ्चित् कन्यां प्रति रणमिदं तद्यशो मे प्रमाष्टि ॥ इत्युद्भूतात् प्रकृति सुलभात् स्त्रीषु सापत्न्यवैरात् क्वाऽपि क्षोणी धनतिमिररजश्छद्मना गच्छतीव । विक्रान्त कौरव 84 / 32 सरस्वत्या देव्या श्रुति युगावतं सत्वमयते । सुध्या सत्री चीना त्रिजगति यदीया सुभणितिः ॥ कवीन्द्राणां चेतः कुवलय समुल्लासन विधौ ॥ कौरव नाम रूपकम् | पृष्ठ 3, 1 शरज्ज्योत्स्नालीलां कलयति मनोहारि रचना || विक्रान्त कौरव 3/5 अस्ति किल सरस्वती स्वयंवर वल्लभेन हस्तिमल्ल नाम्ना - महाकवितल्लजैन विरचितं विक्रान्त 2 अलग-अलग है | नाटकों के पढ़ते या देखते समय इन समानताओं की प्रोर ध्यान ही नहीं जाता है । नाटक की परख पृष्ठ 21 प्रसाद के नाटकों का शास्त्रीय अध्ययन पृष्ठ 259 1 (क) विक्रान्त कौरव 142 / 75, (ख) विक्रान्त कौरव 141 /74, 3 (ग) विक्रान्त कौरव 63 /53, 4 - (घ) विक्रान्त कौरव 140 / 73, 1 इनके नाटकों के अध्ययन से जैन धर्म के कतिपय सिद्धान्तों तथा अन्य बातों के परिचय के अतिरिक्त संस्कृत, इतिहास, भूगोल, संगीत ( वाद्य शस्त्र) वनस्पति आदि अनेक विषयों की जानकारी मिलती है । नाटक अपनी विविध प्रकार की सामग्री के कारण विविध प्रकार की रुचि वाले के लिए विनोदजनक होता ही है । इसलिए इनके नाटक भी रोचक कथावस्तु, प्रसादमयी भाषा, सरल शैली और काव्य सौष्ठव के कारण भिन्न-भिन्न रुचि के व्यक्तियों के लिए श्रवश्य ही रुचिकर होंगे | 10 - महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International सुभद्रा 15 / 33, सुभद्रा 62/17, सुभद्रा 84 / 27, मैथिली कल्याण 11 / 21, For Private & Personal Use Only 2-83 www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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