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________________ ही तरह के भोजन भोज्य होते थे । शाकाहारी भोजन में जौ, धान, गेहूं, तेल, शाक, उड़द, मूंग आदि मुख्य थे | 21 पशुओं का मांस मांसाहारियों के लिए भोजन में सम्मिलित होता था । 22 पेय पदार्थों में दूध, 23 सुरा, मधु 24 आदि उल्लेखनीय हैं। भोजन करने के बाद सुगंधित द्रव्यों से मिश्रित पानी से कुरला किया जाता था 125 बाद में पान सुपारी खिलाई जाती थी । पान को थूकने के लिये पीकदान भी रखा रहता था । 26 महाकवि वाण की कादम्बरी और हर्ष चरित्र में भी इनके उल्लेख प्राप्त होते हैं । विश्राम के लिए शय्या (प्रासन्दी) उपधान, पर्य कादि हुआ करते थे । मनोरंजन के लिए नाटक, गीत, वाद्य, चित्रकला, द्यूत-क्रीड़ा, 27 वनविहार, 28 जलक्रीड़ा 28 आदि का प्रमुखता से प्रचलन था । विशेष अवसरों पर अनेक सामूहिक महोत्सव भी होते थे । उन दिनों व्यायाम करने की प्रक्रिया आज जैसी ही थी । गोलाकार अखाड़ों में पहलवान लोग अपने अपने दावपेच दिखाते थे इस ग्रंथ को देखने से यह भी पता चलता है कि आजकल जो मुष्टियुद्ध प्रचलित है वह पाश्चात्य देशों की देन नहीं है । हमारे देश में प्राचीन काल में मुष्टियुद्ध का आम -रिवाज था | 30 श्रीकृष्ण और बलभद्र ने चारगुर और मुष्टिक पहलवान को मुष्टियुद्ध में पराजित किया था (३६/४५) । आर्थिक जीवन आर्थिक दृष्टि से भी तत्कालीन भारतवर्ष सम्पन्न था। कृषि, पशुपालन व्यापार, बाणिज्य, कला, कौशल में भी यह देश काफी प्रगति कर चुका था । श्रान्तरिक व्यापार, साथ ही विदेशों से जलपोतों के द्वारा व्यापार होता था । यहां से कपास श्रौर बहुमूल्य रत्नादि का व्यापार किया जाता था । दूर देशों या विदेशों से व्यापार के लिए कई व्यापारी समूह में जाते थे और मार्ग दिखाने के लिए सार्थ 2-76 Jain Education International होते थे जिनको मार्ग का पूरा ज्ञान होता था । सार्थ सम्पन्न भी होते थे । व्यापारियों को निश्चित शुल्क या भागीदारी के आधार पर ऋण भी देते थे । सार्थों के अपने यान, वाहन, चालक, वाहक, रक्षक आदि भी होते थे । प्राचीन भारत में साथ की भूमिका की विशेष जानकारी डा० मोतीचन्द्र की पुस्तक 'सार्थवाह' में मिलती है । व्यापार में लेने देने के लिए निष्क, शतमान, कार्षापण आदि का प्रचलन था । मुद्रानों पर जनपद श्रेणी अथवा धार्मिक चिह्न हुआ करते थे | वाणिज्य व्यापार पर राजकीय नियन्त्रण नहीं था । कर भाग आय के दसवें से छठे भाग तक सीमित था विशेष परिस्थितियों में युद्ध दुर्भिक्ष आदि के समय यह प्रवश्य ध्यान रखा जाता था कि कोई अनुचित लाभ न ले सके । जंगलों दुर्गम स्थानों में कहीं कहीं दस्युदल भी सक्रिय होते थे । थे । अपराध बहुत कम होते थे । धार्मिक जीवन यदि धर्म और विश्वास या समाज की संस्कृति की उत्कृष्टता का द्योतक है तो हरिवंशपुराण एक ऐसे व्यक्ति के धार्मिक जीबन का चित्र प्रस्तुत करता है जो तपः प्रधान था । इस युग में प्राचीन धार्मिक परम्परायें टूट रही थी । बलि यज्ञादि क्रिया काण्डों का स्थान भक्ति उपासना सत्कर्म और सदाचार ने ले लिया था। जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों संस्कृतियां साथ साथ चल रही थीं । हरिवंश पुराण का समस्त वर्णन किसी न किसी प्रकार मुक्ति प्रादि कार्यों से सम्बद्ध है । तीर्थकरों, पंच परमेष्ठियों के स्तवन के साथ साथ विभिन्न श्राचारों और व्यवहारों का भी वर्णन किया गया है । पुराण में सर्वतोभद्र 32 महासर्वतोभद्र, 33 चान्द्रायण 34 आदि अनेक व्रत उपवासों की विधियों एवं उनके फलों का विस्तृत विवेचन किया गया है । For Private & Personal Use Only महावीर जयन्ती स्मारिका 78 www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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