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________________ दुद्धर्ष तप के द्वारा मोक्षमार्ग भी प्रशस्त किया। हुए, उन्होंने काल के अनुसार धर्म का प्राचरण कर उन्होंने लोक और परलोक दोनों के प्रादर्श प्रस्तुत के, उसका तत्व न जानने वालों को, उसकी शिक्षा किये । शायद इसी कारण श्रीमद्भागवत् में उन्हें ___ दी। साथ ही, सम, शान्त, सुहृद् एवं कारुणिक भगवान् कहा गया है-- रह कर धर्म-अर्थ-यश-सन्तानरूप भोग-सुख तथा मोक्ष-सुख का अनुभव करते हुए गृहस्थाश्रम में "महर्षिः तस्मिन्नेव विष्णुदत्तः भगवान् परम- लोगों को नियमित किया। षिभिः प्रसादितः नाभेः प्रिचिकीर्षया तदवरोधायने मरदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमरणा- यह सत्य है कि उनके सुन्दर और सुडौल नामृषीणामूर्ध्वमंथिनांशुक्लया तनुवावततार ।'11 शरीर, विपुलकीत्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश, परा. इसका अर्थ है-हे परीक्षित ! उस यज्ञ में मह- क्रम और शौर्य प्रादि गुणों के कारण, महाराजा र्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर भग- नाभिराय ने उनका नाम ऋषभ रक्खा था। ऋषभ वान्, महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए, उनके का एक अर्थ है-धर्म । ऋषभदेव साक्षात् धर्म ही अन्तःपुर में, महारानी मरुदेवी के गर्भ से, दिगम्बर थे। उन्होंने स्वयं कहा-मेरा यह शरीर दुर्विभाव्य श्रमणों और ऊर्ध्वगामी मुनियों का धर्म प्रकट है, अर्थात् मेरी शारीरिक प्राचार क्रियाए सब की करने के लिए शुद्ध सत्वमय शरीर से प्रकट हुए। समझ में सहज नहीं पातीं । मेरे हृदय में सत्व का निवास है, वही धर्म की स्थिति है । मैंने धर्म-स्व. श्रीमद् भागवत्कार ने ही अन्यत्र एक स्थान रूप होकर अधर्म को पीछे धकेल रिया है, अतएव पर लिखा है कि यद्यपि वे परमानन्द स्वरूप थे, मुझे आर्य लोग 'ऋषभ' कहते हैंस्वयं भगवान् थे, फिर भी उन्होंने गृहस्थाश्रम में नियमित आचरण किया । उनका यह प्राचरण इदं शरीरं मम दुर्विभाव्यं मोक्षसहिता के विपरीतवत् लगता है, किन्तु वैसा था सत्वं हि मे हृदयं यत्र धर्मः । नहीं । मोक्ष वही पा सकता है जो सही अर्थों में पृष्ठे कृतो मे यदधर्म पारादतोः, मानव हो, उसमें मानवीय गुण हों। उन्हें चरितार्थ हि मां ऋषभं प्राहुरार्याः ॥18 करने में ऋषमदेव ने अपना जीवन खपा दिया। विपरीतता कैसी ! भागवत का वह उद्धरण है एक स्थान पर परीक्षित ने कहा-हे धर्मतत्व को जानने वाले ऋषभदेव ! आप धर्म का उपदेश "भगवान ऋषभसज्ञः प्रात्मतंत्रः स्वयं नित्य- कर रहे हैं । अवश्य ही आप वृषभ रूप से स्वयं निवृत्तानर्थपरम्परः केवलानन्दानुभवः ईश्वर एवं धर्म हैं । अधर्भ करने वाले को जो नरकादि स्थान विपरीतवत् कर्मारण्यारभ्यमाणः कालेनानुगत धर्म- प्राप्त होते हैं, वे ही स्थान प्रापकी निन्दा करने माचारेणोपंशिक्षयन्नतद्विदां सम उपशान्तो मैत्रः वाले को मिलते हैंकारुणिको धर्मार्थयश: प्रजानन्दामृतावरोधेन गृहेषु धर्म वृवीषि धर्मज्ञ धर्मोऽसि वषरूपधृक् । लोक नियमयत् ॥"12 इसका अर्थ है-भगवान् यदधर्मकृतः स्थानं सूचकस्यापि तद्भवेत् ॥14 ऋषभदेव यद्यपि परम स्वतन्त्र होने के कारण स्वयं सर्वदा ही, सब प्रकार की अनर्थ-परम्परा से रहित 'पुरुदेवचम्पू' एक प्रसिद्ध ग्रन्य है । जैन पाठकों केवल प्रानन्दानुभव स्वरूप और साक्षात् ईश्वर ही के बीच उसकी ख्याति रही है। इसमें पुरदेव थे, तो भी विपरीतवत् प्रतीत होने वाले कर्म करते (ऋषभदेव) का जीवन चरित्र साहित्यिक साँचे में महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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