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________________ तीन सिद्धियाँ-राजा को उत्साहसिद्धि मंत्र साम-प्रिय तथा हितकारी वचन बोलना और सिद्धि और फलसिद्धि 20 इन तीन सिद्धियों सहित शरीर से आलिङ्गन आदि करना साम कहलाता होना चाहिए। है ।130 पाड्गुण्य सिद्धान्त--मन्धि, विग्रह, आसन उपप्रदान-हाथी, अश्व (घोड़ा), देश तथा यान, संश्रय और द्वधीभाव ये राजा के छह गुण रत्न आदि का देना उपप्रदान कहलाता है ।131 होते हैं । ये छहों गुण लक्ष्मी के स्नेही हैं ।।३।। भेद-उपजाप (परस्पर फूट डालकर) के द्वारा सन्धि-युद्ध करने वाले दो राजाओं का पीछे अपना कार्य सिद्ध करना भेद कहलाता है ।132 किमी कारण से जो मैत्रीभाव हो जाता है, उसे दण्ड----शत्रु के घास आदि आवश्यक सामग्री सन्धि कहते हैं । यह सन्धि दो प्रकार की होती है की चोरी करा लेना, उनका वध करा देना, किसी अवधि सहित और अवधिरहित 1122 वस्तु को छिपा देना अथवा नष्ट कर देना इत्यादि विग्रह शत्रु तथा उसे जीतने का इच्छुक राजा शत्रुओं का क्षय करने वाले जितने कार्य हैं, उन्हें ये दोनों परस्पर में एक दूसरे का उपकार करते हैं, दण्ड कहते हैं । 133 उसे विग्रह कहते हैं । 123 उपर्युक्त उपायों का ठीक ठीक विचार कर प्रासन-इस समय मुझे कोई दूसरा और मैं यथास्थान प्रयोग करने पर ये दाता (समाहर्ता) के किसी दूसरे को नष्ट करने में समर्थ नहीं हूं, ऐसा समान फल प्रदान करते हैं 1134 अथवा जिस प्रकार विचारकर जो राजा चुप बैठा रहता है, उसे प्रासन यथास्थान यथा समय बोए हुए धान उत्तम फल देते कहते हैं । यह प्रासन नामक गुण राजाओं की वृद्धि हैं उसी प्रकार राजा द्वारा यथास्थान यथा समय का कारण है ।124 समय और साधन के बिना। प्रयोग किए हुए सामादि उपाय फल देते हैं ।135 प्रकट हुई शूरवीरता फल देने में समर्थ नहीं है अतः । __ सामादि उपायों के साथ शक्ति का प्रयोग करना धान्य की तरह उस काल की प्रतीक्षा करना चाहिए प्रधान कारण है। जिस प्रकार खोदने से पानी जो कार्य का साधक है। 125 और परस्पर की रगड़ से अग्नि उत्पन्न होती है, __यान--अपनी वृद्धि और शत्रु की हानि होने उसी प्रकार उद्योग से जो उत्तम फल प्रदश्य है, पर दोनों का शत्रु के प्रति उद्यम (शत्रु पर प्राक्र- वह भी प्राप्त करने योग्य हो जाता है । 136 मण करने के लिए गमन) है, उसे यान कहते हैं । यह यान अपनी वृद्धि और शत्रु की हानि रूप फल अपराध और दण्ड-अपराध करने वालों को को देने वाला है । 126 प्राचीन समय में कड़ा दण्ड दिया जाता था। दूसरे की धरोहर का अपहरण करने पर तीन दण्ड137 संश्रय-जिसका कोई शरण नहीं है, उसे निश्चित थे। अपनी शरण में रखना संश्रय नाम का गुण है ।127 विजय की इच्छा रखने वाले राजा को (i) सर्वस्व हरण कर लेना । अच्छी तरह प्रयोग में लाए हुए सन्धि विग्रह ग्रादि (ii) मल्ल के तीस मुक्के लगवाना । छह गुरणों से सिद्धि मिल जाती है ।128 (iii) कांस्यपात्र में रखा हुआ नया गोबर खिलाना। चार उपाय-साम, उपप्रदान (दान) भेद और दण्ड ये चार उपाय हैं। इनके द्वारा राजा लोग राजा धर्माधिकारियों की संस्तुति पर दण्ड अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं।129 देता था।138 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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