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________________ समस्त ऋद्धियां देव और पुरुषार्थ दोनों के प्राधीन अत्यासक्ति के कारण न स्नान करता है, न भोजन रहती हैं, वह मन्त्री आदि मूल प्रकृति तथा प्रजा करता है, न सोता है और इन अावश्यक कार्यों का आदि वाह्य प्रकृति के क्रोध से रहित होकर स्व- रोध हो जाने से रोगी हो जाता है । जुना खेलने से राष्ट्र तथा पर राष्ट्र का विचार करे। तीन शक्तियों धन प्राप्त होता है, यह बात भी नहीं है। जारी और सिद्धियों से उसे सदा योग ओर क्षेम का व्यक्ति व्यर्थ ही क्लेश उठाता है, अनेक दोष उत्पन्न समागम होता रहे साथ ही वह सन्धि, विग्रह आदि करने वाले पाप का संचय करता है, निन्द्य कार्य कर छह गूगों की अनुकूलता रखे ।। अच्छे राजा के बैठता है, सबका शत्रु बन जाता है, दूसरे लोगों से राज्य में प्रजा की अयुक्ति प्रादि पांच प्रकार की याचना करने लगता है और धन के लिए नहीं बाधानों में से किसी प्रकार की बाधा नहीं रहती करने योग्य कामों में प्रवत्ति करने लगता है। है ।60 उत्तम राजा का नित्य उदय होता रहता है, बन्धुजन उसे छोड़ देते हैं एवं राजा की ओर से उसे उसका मण्डल विशुद्ध (शत्रु रहित) और अखण्ड अनेक कष्ट प्राप्त होते हैं ।68 राजा सुकेतु इसका होता है तथा प्रताप निरन्तर बढ़ता है। ऐसे दृष्टान्त है । वह जुमा के द्वारा अपना राज्य भी राजा की रूपादि सम्पत्ति उसे अन्य मनुष्यों के हार बैठा था। इसलिए उभयलोक का कल्याण समान कुमार्ग में नहीं ले जाती है ।62 चाहने वाला व्यक्ति जुना को दूर से ही छोड़ दे ।69 राजा के दोष-दोषी या अन्यायी राजा राजकुमार-राजा को चाहिए कि वह सबको सन्ताप देने वाला, कठोर कर लगाने वाला, उपयोग तथा क्षमा आदि सब गुरगों की पूर्णता हो कर, अनवस्थित तथा पृथ्वी मण्डल को नष्ट करने जाने पर राजकुमार को व्रत देकर विद्यागृह में वाला होता है ।63 उसके फलस्वरूप वह अनेक प्रवेश कराए 170 विद्याध्ययन करते समय उसका प्रकार के दण्डों को पाता है। राजा को आभिजात्य वर्ग से सम्पर्क हो । दास, हस्तिपक अहंकार छोड देना चाहिए, अहंकारी लोग अादि को वह अपने सम्पर्क से दूर करे ।1 राजक्या नहीं करते ? 65 प्रशभकर्म के उदय से कोई कुमार इन्द्रियों के समूह को इस प्रकार जीते कि वे कोई राजा द्य त जैसे व्यसनों में प्रासक्त हो जाता इन्द्रियां सब प्रकार अपने विषयों के द्वारा केवल है। मन्त्रिवों और कूटम्बियों के रोकने पर भी वह आत्मा के साथ प्रेम बढ़ायें ।2 बुद्धिमान राजकुमार उनसे प्रेरित हए के समान उन व्यसनों में आसक्त विनय की वृद्धि के लिए सदा वृद्धजनों की संगति रहता है, फलस्वरूप अपना देश, धन, बल, रानी करे । शास्त्रों से निर्णय कर विनय करना कृत्रिम सब कुछ हार जाता है 166 क्रोध से उत्पन्न होने वाले विनय और स्वभाव से ही विनय करना स्वाभाविक मद्य, मांस और शिकार इन तीन व्यसनों में तथा विनय है । 73 जिस प्रकार पूर्ण चन्द्रमा को पाकर काम से उत्पन्न होने वाले जुश्रा, चोरी, वेश्या और गुरु और शुक्र ग्रह अत्यन्त सुशोभित होते हैं, उसी परस्त्री सेवन इन चार व्यसनों में जुना खेलने के प्रकार सम्पूर्ण कलानों को धारण करने वाले सुन्दर समान नीच व्यसन नहीं है ।67 सत्य जैसे महान् राजकुमार को पाकर स्वाभाविक और कृत्रिम दोनों गुण को जुना खेलने में आसक्त मनुष्य सबसे पहले प्रकार के विनय अतिशय सुशोभित होते हैं । हारता है, पीछे लज्जा, अभिमान, कुल, सुख, राजकुमार कलावान् हों पर किसी को ठगें नहीं, सज्जनता, बन्धुवर्ग, धर्म, द्रव्य, क्षेत्र, घर, यश, प्रताप सहित हों, परन्तु किसी को दाह नहीं पहुंचावें? माता-पिता, बाल बच्चे, स्त्रियां और स्वयं अपने जो राजपुत्र विरुद्ध शत्रुओं को जीतना चाहते हैं प्रापको नष्ट करता है । जुना खेलने वाला मनुष्य उन्हें बुद्धि, शक्ति, उपाय, विजय, गुणों का विकल्प 2-34 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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