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________________ दूध देकर सन्तुष्ट करती है उसी प्रकार राजा भी हार करना और तीसरे के लिए भेद और दण्ड का पृथ्वी का भरणपोषण कर उसकी रक्षा करता है और प्रयोग करना यही ठीक उपाय बतलाते हैं । पृथ्वी भी उसे अपने रत्नादि सार पदार्थ देती है। राजाओं का एक अन्य विभाग23 भी मिलता हैगुणवान राजा देव, बुद्धि और उद्यम के द्वारा स्वयं (1) शत्रु राजा (2) मित्र राजा (3) उदासीन लक्ष्मी का उपार्जन कर उसे सर्वसाधारण के उपभोग राजा । महासामन्त(७१।१५६)सामन्त , युवराज करने योग्य बना देता है, साथ ही स्वयं उसका मुकुटबद्ध राजा, विद्याधर, पट्टबंधराजा27, भूगोचर उपभोग करता है । राजा जव न्यायपूर्वक प्रजा अर्द्ध चक्री, चक्री (६४।३०) अधिराज ,६८।३८२) का पालन करता है और स्नेहपूर्ण पृथिवी को माण्डलिक (६४।२६) तथा मद्रामाण्डलिक माण्डलिक (६४।२६) तथा महामाण्डलिक (४८।७४) मर्यादा में स्थित रखता है तभी उसका भूभृत्पना के रूप में राजाओं के अनेक भेद मिलते हैं। सार्थक होता है। जिस प्रकार मेंढकों द्वारा प्रास्वादन करने योग्य अर्थात् सजल क्षेत्र अठारह राजा के अधिकार और कर्तव्य-राजा प्रकार के इष्ट धान्यों की वृद्धि का कारण होता है कोश, दुर्ग, सेना प्रादि का उपभोग करता है । वह उसी प्रकार श्रेष्ठ राजा गुणों की वृद्धि का किसी महाभय के समय प्रजा की रक्षा करने के कारण होता है14 । वह कल्पवृक्ष के समान इच्छित लिए धन संचय करता है और प्रजा को सन्मार्ग में फल को देता है15। चूकि वह दुर्जनों का निग्रह चलाने के लिए योग्य दण्ड देता है ।28 प्रजा राजा और सज्जनों का अनुग्रह द्वेष अथवा इच्छा के वश के प्रति प्रेम रखती है, इसके बदले वह उसका नहीं करता है किन्तु गुण और दोष की अपेक्षा पालन करता है, इस प्रकार उसके परोपकार में करता है अतः निग्रह करते हुए भी वह प्रजा का स्वोपकार भी निहित रहता है ।29 पूज्य है । जिस प्रकार मरिणयों का प्राकर समुद्र है, उसी प्रकार वह गुणी मनुष्यों का प्राकर है17। राजा के गुरग-१. त्रिवर्ग की वृद्धि-राजा परस्पर की अनुकूलता से धर्म, अथं और काम रूप राज्याभिषेक-सामान्यतया बड़े पुत्र को राजा त्रिवर्ग की वृद्धि करता है । 30 राज्य का भार दे देता था18। दो पुत्र होने की स्थिति में बड़े को राज्य देकर छोटे को युवराज २. शत्र का विजेता-राजा को वाह्य और बनाया जाता था । स्नेहवश कभी भाई के पुत्र आन्तरिक शत्रुओं का विजेता होना चाहिए ।31 अथवा अन्य सम्बन्धी को भी उत्तराधिकारी बना श्रेष्ठ राजा कुटिल (वक्र) मनुष्यों को अपने पराक्रम दिया जाता था। (६६।१०३)। राज्याभिषेक के से ही जीत लेता है, ऐसे राजा की सप्ताङ्ग सेना समय इष्टदेव की पूजा की जाती थी और राजा को केवल प्राडम्बर मात्र होती है ।32 राजा का राज्य सिंहासन पर बैठाकर स्वर्णमय कलशों से उसका दूसरे के द्वारा तिरस्कृत न हो और न वह दूसरों राज्याभिषेक किया जाता था20 । का तिरस्कार करे ।33 प्रावश्यकता पड़ने पर राजा . राजानों के भेद-राजा तीन प्रकार के अपने मुजदण्डों से शत्रुओं के समूह को खण्डित कर होते हैं दे । वह किसी पुराने मार्ग को अपने आचरण के ..(1) लोभविजय (2) धर्मविजय द्वारा नया कर दे और पश्चाद्वर्ती लोगों के लिए (3) असुरविजय। वही मार्ग फिर पुराना हो जाय 134 राजा को ... नीतिविद् अपना कार्य सिद्ध करने के लिए प्रताप रूपी वडवानल की चंचल ज्वालाओं के पहले को दान देना, दूसरे के साथ शान्ति का व्यव- समूह से देदीप्यमान होना चाहिए 135 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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