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________________ महावीर - वचन B १. किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ही ज्ञानी होने का सार है । २. जीव मरे या जीये इससे हिंसा का सम्बन्ध नहीं है । यत्नाचार - हीन प्रमादी पुरुष निश्चित रूप से हिंसक है । यत्नाचारपूर्वक प्रभावहीन प्रवृत्ति करने वाले को जीव की हिंसा हो जाने मात्र से बंध नहीं होता । ३. सम्यकज्ञान का फल शुद्ध चारित्र है । ४. हिंसा, संयम और तपरूप धर्म ही उत्कृष्ट मंगल अर्थात् कल्याणकारी है। ५. श्रप्रमत्त और सावधान रहते हुए सदा हितकारी, मित और प्रिय वचन बोलना चाहिए । ६. परोपकारो लोग अपनी आपत्तियों का विचार नहीं करते । ७. जीव के अच्छे और बुरे भाव ही पुण्य तथा पाप क्रमश: हैं । ८. बांधे हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है । ६. मन के विकल्पों को रोक देने पर यह श्रात्मा ही परमात्मा बन जाता है । १०. तू ही कर्म करने वाला है, तू ही उनका अच्छा बुरा फल भोगने वाला है तथा तू ही मुक्त होने वाला है फिर कर्मबन्धन से मुक्त होकर स्वाधीन होने का प्रयत्न क्यों नहीं करता । ११. तू स्वयं ही तेरा गुरु है । Jain Education International फर्म- गुलाबचन्द कासलीवाल 35 III भोईवाड़ा, कासलीवाल भवन बम्बई द्वारा प्रचारित For Private & Personal Use Only www www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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