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________________ निरत रहता है। तप के ये प्रकार मनोवैज्ञानिक तो एक सामान्य एवं स्थूल विधान मात्र है जिसके दृष्टि से बड़े मूल्ययान हैं। इनमें बाहरी तपन नहीं पीछे मानवीय ज्ञान-शक्ति की अवहेलना है। प्रारंभ है । लोगों को चमत्कृत करके प्रसिद्धि प्राप्त करने के 25 वर्षों तक ब्रह्मचर्याश्रम के पालन का विधान की अभीप्सा नहीं है और व्यर्थता भी नहीं है। मनुष्य को आगे 'भोग' में ले जाता है, जबकि जैन शरीर को सताने की अपेक्षा उसे हल्का-फुल्का एवं साधना के अंतर्गत ब्रहचर्यव्रत का विधान एक बार विकार-विवजित बनाने में जो तपस्या सहायक स्वीकार करने के बाद अत्याज्य है और इसी कारण हो, वही करने का इंगित इन तपों में है । ये तप वह मनुष्य को 'योग' की ओर ले जाता है । विश्व बाहर से दीखते भी नहीं हैं साधक इन्हें प्रदर्शित कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने संकेत किया है कि भी नहीं करता। सूर्य जैसे अपनी किरणों से 'जीवन एक अमर जवानी है, उसे उस प्रायु से संसार को प्रकाश के साथ-साथ जीवन देता है, नफरत है जो इसकी गति में बाधक हो जो दीपक वैसे ही इन द्वादश तपों से साधक अपने में तेज का की छाया की तरह जीवन का पीछा करती है। अनुभव व करता है और इस तेज से वातावरण को हमारा जीवन नदी की धारा की लहरों की तरह आलोक मिलता है । ये तप साधक के शरीर-दीप अपने तट से छूता है, इसलिए न कि वह अपनी को प्रज्वलित रखते हैं । तमोमय शरीर का दीपक सीमानों का बंधन अनुभव करे, बल्कि इसलिए कि बुझता नहीं है, उसका उत्सर्ग होता है, जो समूचे वह प्रतिक्षण यह अनुभूति लेता रहे कि उसका वातावरण में एक प्रकाश-किरण छोड़ जाता है। अनन्त मार्ग समुद्र की और खुला है। जीवन ऐसी कविता है जो छन्दों के कठोर अनुशासन में चुप जन-साधना में श्रायु की मर्यादा का कोई नहीं होती, बल्कि इससे अपनी प्रांतरिक स्वतंत्रता प्रावधान नहीं है। जिस मानव चेतना में और क्षमता को और भी अधिक प्रकट करती है। ज्ञान-किरण का उदय हो जाता है, वैराग्य की (साधना, पृष्ठ ६२-६३) उर्मि तरंगायमान होने लगती है, वह साधना के पथ पर आरोहण कर जाता है । अनेक उदाहरणों सावना का क्षेत्र विस्तार अनीम है, अनन्त में हम देखते ही हैं कि अल्पवय में ही अनेक पुरुष प्रकाश की भांति । किसी भी एक क्षेत्र या विषय ज्ञानी एवं संत पुरुष हो गये हैं । ज्ञान प्रात्मिक में साधना की ओर बढ़ने पर प्रत्येक जागरूक व्यक्ति ऊर्जा है, वह पोथी-पुस्तकों की चीज नहीं है। अपने को नितान्त अला या शून्य ही पाता है। कबीर तो कह ही गये हैं कि पोथी-पढ़ कर तो जीवन भर हुबकीयां लगाने पर भी अन्ततः लगता संसार मर ही गया, कोई पण्डित नहीं हुआ । एक है कि अभी तो विराट के एक विन्दु का भी स्पर्श तरुण भी श्रमण हो सकता है और एक वृद्ध भी नहीं हुप्रा है । बोलने को तो हम रात दिन बोलते माया-जाल में उलझा रह जाता है। उत्तराध्यनसूत्र रहते हैं, लेकिन यथार्थतः बोलने की विशेषताओं में अनाथीमुनि की एक ऐसी ही प्रतीक-कथा है। या गरिमा से हम अन्त तक अपरिचित ही रह जैन आगमों में अनेक तरुण तपस्वियों की गाथाएं जाते हैं । सर्वाधिक प्राचीन जैनागम आचारांगसत्र अकित हैं जो माता-पिता को घर में छोड़कर वन में साधु के लिये पाहार प्राप्त करना भी अहिंसा की की अोर प्रस्थान कर गये । मूल बात यह है कि दृष्टि से एक साधना ही है। पांचो इन्द्रियों से तथा पाश्रम व्यवस्था निर्माण करके मनुष्य जीवन को विभिन्न शारीरिक अवयवों से निरंतर काम लेते चार खडों में विभाजित करने की कल्पना ज्ञान हुए भी और यह जानते हुए भी कि इनका क्या प्रथवा साधना के मार्ग में सहायक नहीं होती। वह उपयोग एवं लाभ है, हम इनके प्रति कितने अन महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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