SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एवं श्रमण धर्म के रूप में द्विविध है। श्रावक की चेतना प्रकृतिस्थ हो जाती है--वह परम दिगम्बर - साधना व्यवहार प्रधान होते हुए भी उसकी दृष्टि (निग्रन्थ) हो जाता है। दिगम्बर केवल रूढ़ निश्चयमूलक साध्य पर होती है। श्रावक की नग्नता के अर्थ में नहीं, बल्कि सम्पूर्णमना वह साधना निश्चय का पूरक होती है, तभी वह एक दिशात्रों के विराट वस्त्र को प्रोढ़ लेता है। संसार समय समस्त बाह्यतानों से निवृत्त श्रमण-मार्ग . में रहकर भी वह संसार का नहीं रह जाता। की ओर प्रवृत्त होता है --- अन्तर्मुख होता है। श्रमण के लिए जैन शास्त्रों में अट्ठाइस मूलगुणों धावक धीरे-धोरे एकादश सोपानों पर चढ़ता है। के पालन का विधान है। वे निरन्तर बारह अनुयह ठीक है कि उसकी यह व्यवहार-साधना खान- प्रेक्षात्रों का चिन्तन करते हैं। दश धर्मों का पान, तथा स्थूल व्रतों तक सीमित होती है, उसका पालन करते हैं। मन, वचन, काय का गोपन करते समूचा व्यवहार परस्पर-सापक्ष होता है, एवं हैं। और चलने, बोलने, खाने-पीने भादि के रूप सांसारिक समस्याओं में प्राबद्ध भी होता है, किन्तु में पांच समितियों का सावधानीपूर्वक आचरण अनादिकालीन मोहनीय संस्कारों एवं मिथ्यात्वों करते हैं। इस प्रकार की साधना का प्रतिपादन से ग्रस्त जीवन को एक नई दिशा देते समय ऐसा अन्यत्र दुर्लभ है। नैतिक चारित्र भी बड़ा क्रान्तिकारी होता है। इस साधना में एक ऐसा तत्व दर्शन अन्तर्भूत श्रावक धर्म की जो प्राचार-संहिता जैन में प्रति. है जो साधक को साध्य से विमुख हीं होने देता। पतिपादित है वह अन्यत्र दुर्लभ हैं। बाहर से वह ___ सात तत्व एवं छः द्रव्यमूलक सृष्टि-यवरथा का न म ग नैतिक दिखती है, जरूर, लेकिन उसके बीज बहुत निदर्शन जैनदर्शन बी अपनी मौलिक देन है। इस गहरे गये होते हैं और उन में विशाल वृक्ष बनने तत्वज्ञान की प्राधारशिला पर ही समग्र साधना की की क्षमता होती है। सामाजिक शिष्टाचार के इमारत खड़ी है । कहने का तात्पर्य यह है कि केवल लिए या राष्ट्रीय चरित्र की एकरूपता के लिए नैतिक उपदेशों या कर्मकाण्डों के प्राधार पर नैतिक उपदेशों से भरी हुई प्राचार-संहिता मनुष्य की गई साधना मनुष्य को तप वी तो बना सकती को ऊपर ऊपर से आकर्षित करती है और उसे भी है, उसमें सहिष्णुता भी पा सकती है, किन्तु मैतिकता का मुखौटा लगाने की सुविधा मिल साध्य अस्पष्ट ही रहता है । जैन धर्म के अनुसार जाती है, किन्तु इतने से वह प्रात्म-विकास की साधक के समक्ष साध्य का चित्र स्पष्ट रहता है, ओर जाने में समर्थ नही हो जाता-बल्कि प्रात्म. और उसी के चतुर्दिक उसकी साधना का चक्रमण बंचक ही अधिक होता है । जैन प्राचार संहिता होता है। '; ने कभी शिष्टाचार का नैतिक उपदेश नहीं दिया । जैन साधक तप भी करता है। जैन साधक .. श्रावक के व्रतों की विशेषता यह है कि इन व्रतों के लिए बारह प्रकार के तपों का विधान है। को स्वीकार करने के उपरांत--इनमें से किसी छः तप बाह्य हैं और छः प्राभ्यन्तर । बाह्य तपों एक व्रत को भी किसी भी अश में स्वीकार करने के द्वारा साधक कभी अनशन करके, कभी मुख से । के उपरांत मनुष्य में बदलाव प्रारम्भ हो जाता है, कम खाकर, कभी सीमित पदार्थ ग्रहण करके, • क्योंकि यह व्रत स्वीकृति प्रात्मशोधन एवं प्रात्म कभी किसी रस को तज करके, और कभी शरीर शुद्धि के लिए होती है। को नियंत्रित करके वासनाप्रों पर अंकुश लगाता जब श्रावक की साधना प्रात्मशोधन के एक है, अभिलाषायों को संकोचता है । आन्तरिक तप बिन्दु पर पहुंच जाती है तो वहां उसकी समग्न के द्वारा वह ज्ञान-ध्यान पठन-पाठन-चिन्तन में 1-48 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy