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________________ हम प्रतिदिन शास्त्र पढ़ते और सुनते हैं किन्तु उसका कोई प्रभाव हमारे जीवन में नहीं होता। इसका कारण यह है कि हम शास्त्र में बताए सत्य को केवल पढ़ने या श्रवण करते हैं उन पर हमारी प्रतीति नहीं होती। यदि प्रतीति हो जाय तो निश्चित रूप से हम उस मार्ग पर चलने लगें। सत्मार्ग पर अग्रसर होने की पहली शर्त है उस पर प्रतीति । इसी को तोते के एक उदाहरण द्वारा विद्वान् लेखक ने, जो कि अपने विशेष ढंग से चिन्तन के लिए विख्यात हैं, स्पष्ट किया है। काश ! हम इस सत्य को समझ सकते। प्र० सम्पादक शाब्दिक सत्य उसका स्थूल संस्करण होता है * विद्यावारिधि डा० महेन्द्रसागर प्रचण्डिया, अलीगढ़ परा प्रतीति की वस्तु है । वह पश्यन्ति मध्यमा मन्दिर का पुजारी द्वार पर बनी एक कोठरी से होती हुई वैखरी का रूप ग्रहण करती है। में निवास करता है । उसके बाहर एक संकरा-सा ध्वनि का धर्म वस्तुतः बिखरना है। शब्द एक छज्जा है । उसी छज्जे में अनेक छींके टंगे हुये हैं। विशेष ध्वनि हैं जो कण्ठ से निकलकर कर्ण-विवर एक पिंजरा उन्हीं के बीच में टंगा है जिसमें पानीमें सुनाई पड़ती है। पाथेय के साथ एक तोता बैठा है। किसी प्रागत की आहट पाकर वह बोलता है-उसके बोल-'हरे शब्द में जो अर्थ-अभिप्राय होता है वह अत्यन्त राम, मुक्ति-मुक्ति' किसी को भी स्पष्ट ध्वनि में सूक्ष्म होता है । उसमें रूप धारण करने की शक्ति सुनाई पड़ सकते हैं। सामर्थ्य नहीं होती । अर्थ का सीधा सम्बन्ध अनुभूतिजन्य है। इस प्रकार शाब्दिक सत्य विनिमय संयोग से एक परदेशी हरिभक्त का मध्य ह्न साध्य होता है जबकि अनुभूतिजन्य सत्य (परानु में पाना हुआ। उन्हें मन्दिर बन्द मिला । वे भूतिमात्र) प्रतीति की बस्तु है । पुजारी बाबा के निकट सोद्देश्य पधारे । उन्हें __ यही कारण हैं कि शाब्दिक सत्य व्यवस्था पुजारी से पहिले तोता के दर्शन हुए। उनके आगकी बात करता है उसमें आस्था के लिए कोई बल मन पर तोता ने 'हरे राम-मुक्ति-मुक्ति' के बोल विवेक नहीं होता। इसीलिए शास्त्र अनुभूति के र सुनाये । प्रागत ने तोते की बात ध्यानपूर्वक सुनी। प्रभाव में निरे निरर्थक प्रमाणित होते हैं। उन्होंने उसे मुक्त करने के लिए पिंजड़े के द्वार खोल दिये । पिजड़ा खोला था तोता के मुक्त होने एक वृत्त का स्मरण हुआ है, यहाँ मैं उसी के के लिए किन्तु उन्हें तब भारी पाश्चर्य हुआ माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट करूंगा। जव खुले पिंजड़े से तोता का मुक्त होना नहीं महावीर जयन्ती स्मारिका 11 1-53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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