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________________ सोकेतिक रूप अथवा (१) प्रथम भंग-अ. उ.वि है । उपदान की दृष्टि से यह घड़ा मिट्टी का है। । द्वितीय भंग-अ, उ.वि. नहीं है उपदान की दृष्टि से यह घड़ा स्वर्ण का नहीं है। . उदाहरण । (4) प्रथम भंग -12 31 है। (१) प्रथम भंग में जिस धर्म (विधेय) का विधान द्वितीय भंग - अ, उ नहीं है । किया गया है, अपेक्षा बदल कर द्वितीय भंग उदाहरण में उसी धर्म (विधेय) का निषेध कर देना । जब प्रतिपादित कथन देश या काल या दोनों जैसे - द्रव्य दृष्टि से घड़ा नित्य है . पर्याय के सम्बन्ध में हो तब देश काल आदि की दृष्टि से घड़ा नित्य नहीं है । अपेक्षा को बदलकर प्रथम भंग में प्रतिपादित .कथन का निषेध कर देना । जैसे-15 अगस्त (२) प्रथम भंग-प्र: उ.वि. है । 1947 के पश्चात से पाकिस्तान का अस्तित्व द्वितीय भग-अ उवि है। ८ यह चिन्ह प्रथम भंग के विधेय के विरुद्ध है। 15 अगस्त 1947 के पूर्व में पाकिस्तान विधेय का सूचक है जैसे नित्य के स्थान पर का अस्तित्व नहीं था। अनित्त्य । द्वितीय भंग के उपरोक्त चारों रूपों में प्रथम ! उदाहरण पोर द्वितीय रूप में बहुत अधिक मौलिक भेद प्रथम भंग में जिस धर्म का विधान किया गया नहीं है। अन्तर इतना ही है कि जहां प्रथम रूप है, अपेक्षा बदलकर द्वितीय भंग में उसके में एक ही धर्म का (विवेय) का प्रथम भंग में 1 . 'विरुद्ध धर्म (विवेय) का प्रतिपादन कर देना , 'है। जैसे - द्रव्य दृष्टि से घड़ा नित्य है। विधान और दूसरे भंग में निषेध होता है, वहां ...पर्याय दृष्टि से ६ड़ा अनित्य है। दूसरे रूप में दोनों भंगों में अलग अलग रूप में दो . . विरुद्ध धर्मों (विधेयों) का विधान होता है । प्रथम (२) प्रथम भंग-अ.) उ, वि, है। रूप की प्रावश्यकता तब होती है जब वस्तु में एक द्वितीय भंग-41. उ-वि, नहीं है। ही गुण अपेक्षा भेद से कभी उपस्थित रहे और उदाहरण कभी उपस्थित नहीं रहे। इस रूप के लिए वस्तु प्रथम भंग में प्रतिपादित धर्म को पुष्ट करने में दो विरुद्ध धर्मों के युगल का होना जरुरी नहीं है, हेतु उसी अपेक्षा से द्वितीय भंग में उसके जबकि दूसरे रूप का प्रस्तुतीकरण केवल उसी विरुद्ध धर्म या भिन्न धर्म का वस्तु में निषेध स्थिति में सम्भव होता है, जबकि वस्तु में धर्म कर देना । जैसे-.--रंग की दृष्टि से यह कमीज विरुद्ध युगल हो ही। तीसरा रूप तब बनता है, नीला है। रंग की दृष्टि से यह कमीज पीला जबकि उस वस्तु में प्रतिपादित धर्म के विरुद्ध धर्म नहीं है। की उपस्थिति ही न हो । चतुर्थ रूप की आवश्यकता तब होती है, जबकि हमारे प्रतिपादन में विधेय का अथवा स्पष्ट रूप से उल्लेख न हो । द्वितीय भंग के अपने स्वरूप की दृष्टि से प्रात्मा में चेतन है। पूर्वोक्त रूपों में प्रथम रूप में अपेक्षा बदलती है, अपने स्वरूप की दृष्टि से मात्मा अचेतन नहीं धर्म (विधेय) वही रहता है और क्रिया पद निषेधात्मक होता है। द्वितीय रूप में अपेक्षा महावीर जयन्ती स्मारिका 71 1-47 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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