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________________ यथा-- महाराजा जो मनमाना अत्याचार, अन्याय, हिसा परमो धर्मः" को श्रेष्ठ माना है और जैन धर्म में पोर बलियां आदि किया करते थे उनके असामा- अहिंसा की अत्यन्त ही बारीकी से व्याख्या की जिक आचरण में परिवर्तन लाकर उनकी प्रजा के गई हैकल्याण के लिए प्रेरित किया। भगवान महावीर स्वामी ने समस्त प्राणियों को अपने उपदेश दिये और उन उपदेशों पर कत्तव्यपरायणता के साथ "मरदु व जियदु व जीवो प्रयदाचारस्स चलने व पालन करने को उत्प्रेरित किया। भगवान गिच्छिदा हिंसा"-प्रवचन, 3.18 महावीर स्वामी मनीषी होकर भी तीर्थ कर बन किसी जीव का मरना या जीना हिंसा, अहिंसा गये। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में अच्छा खाना, नहीं है, किन्तु प्रयत्नाचार का नाम हिंसा और अच्छा पहनना, अच्छा निवास सभी कुछ हमेशा. यत्नाचार का नाम अहिंसा है। हमेशा के लिए त्याग दिया और राज के मोह को "रागादीण मणुप्पा अहिंसकत्तत्ति देसियं छोड़कर सारी धन दौलत का तिरस्कार कर दिया। समए। उन्होंने सुख नाम की चीज को भुला दिया तब कहीं तेसि च उप्पत्ति हिसेति जिणेहि सिद्दिठ्ठा 1421 प्राज विश्व के समक्ष वे तीर्थ कर के रूप में प्रतिष्ठित ___-जयधवला टीका हुए। तीर्थ कर बनना कोई सरल काम नहीं है। राग-द्वेष प्रादि का उत्पन्न नहीं होना अहिंसा महावीर स्वामी अपने राज भवन के संकुल और · अलक्ष्य रास्ते से निकल कर धरती की पगडंडियों की। कहा गया है। रागादिक की उत्पत्ति होना हिंसा है, __ऐसा जिनदेव ने निर्देश किया है। प्रोर बढ़े और धरती की पगडंडी पर जनसाधारण के पादोसिय अधिकरणिय कायिय परिदावणाबीच मानव-मात्र के जीवन को मोक्ष गति प्राप्ति के लिए मनुष्यों के हृदय में प्रेम जल बिन्दु गिराई, दिवादाए। स्नेहसिक्त वाणी का रस बरसाया। महावीर एदें पंचपोगा किरियानों होंति हिंसायो । स्वामी परमार्थ साधन के लिए प्राकुल नहीं थे, वे -भगवती पाराधना, 807 प्राणी और उनके मोक्ष; कल्याण के लिए तड़फड़ा द्वेष करना हिंसा के उपकरणों को ग्रहण रहे थे उनके हृदय में एक टीस थी, वेदना थी, करना, दुष्ट भाव से शरीर की क्रिया करना, दुःख , उत्पीड़न था और इन सबका हल खोज निकालने देने के लिए क्रिया करना, प्राणों (पायु, इन्द्रिय, के लिए उन्होंने अपना एकान्त जीवन अपनाया, बल, श्वास) का घात करना, इन पांच प्रकार के कठिन तपस्या की । कई दिनों तक कठिन तपस्या प्रयोगों को हिंसा की क्रिया कहते हैं । करने के पश्चात भी उनके दिव्य ललाट, विशाल , नेत्र, मुख की कांति और प्राभा मण्डल में मलीनता हिंसा मानव जीवन के कल्याण में एक समस्या .. दृष्टिगोचर नहीं हुई । उनके शरीर के अवयवों में है। जब तक शांति प्राप्त नहीं होती तब तक थकान का प्राभास तक नहीं हुआ। उनके दैनिक कल्याण होना असम्भव है और शांति तब तक ही जीवन में किसी प्रकार का व्यवधान भी उपस्थित मिलती है जब तक कि हिंसा रूपी द्वन्द्व प्रात्मा नहीं मा। उपरोक्त विशेषताओं के कारण उनकी सन निकल जाय। ध्यान और समत्व योग की साधना निरन्तर निर्मल महावीर स्वामी ने समस्त प्राणियों को अभय और पवित्र होती चली गई। वरदान दिया व कहा कि पृथ्वी के समस्त प्राणियों महावीर स्वामी ने अपने उपदेशों में "अहिंसा को अपना जीवन यापन करने का अधिकार है, 1-34 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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