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________________ जहां पर दुःख रूपी दावानल अग्नि अतिशय गुणों सहित विशुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करना रूप प्रज्ज्वलित हो रही है-धधक रही है ऐसे इस ही दर्शन विशुद्धि भावना है । संसाररूपी गहन वन में बेचारे संसारी प्राणी जो 2. विनयसम्पन्नता-ज्ञान, दर्शन चारित्र और कि मोक्षमार्ग से अनभिज्ञ हैं वे अतिशय रूप से तप तथा इनके धारकों में सतत् विनय करना घबराये हुये है और इस दु खरूपी पग्नि में झुलस विनय सम्पन्नता भावना है। रहे हैं, मैं 'इन बेचारों का उद्धार करू" इस प्रकार 3. शीलवतेष्वनतिचार-पांच महाव्रत या से पर के ऊपर अनुग्रह करने की उत्कट भावना से उत्पन्न हुना जो पुण्य है उस पुण्य के महात्म्य अणुव्रतों में तथा इनके रक्षक गुणवत प्रादि शीलों से ही कालांतर में अपने वचनों के द्वारा जो भव्य में अतीचार नहीं लगता। जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं वे प्रहंत 4. प्रभीक्ष्णज्ञानोपयोग-हमेशा जिनेंद्र भगवान. भगवान् हमारी रक्षा करें। के वचन रूप परम रसायन का पान करते रहना । यहां तीर्थंकर प्रकृति के लिये कारणभूत 5. संवेग संसार, शरीर और भोगों को अपायविचय धय॑ध्यान का बड़ा ही सुन्दर विवेचन दुःखदायी जानकर इनसे विरक्त होना । किया है । वास्तव में जिनके हृदय में सच्ची करुणा 6. शक्तितस्त्याग- अपकी शक्ति के अनुसार उमड़ती है वे ही भव्य जीवों के अपाय अर्थात् कष्ट आहार, औषधि अभय और ज्ञान का दान देना । को दूर करने की भावना कर सकते हैं अन्य नहीं। 7. शक्तितस्तप - शक्ति के अनुसार बारह विश्व में ऐसे भी प्राणी हैं जो सतत् परोपकार ही , प्रकार के तपों का अनुष्ठान करना । करना चाहते हैं किंतु सत्यमार्ग की या अपने हित की जिन्हें कुछ जानकारी ही नहीं हैं। ऐसे लोग 8. साधु समाधि--रोग या श्रम प्रादि के इस अपायविचय धर्मध्यान के अधिकारी नहीं हो निमित्त से असमाधि को प्राप्त हुये साधुनों के सकते हैं। अनुकूल प्रवृत्ति, सेवा उपदेश प्रादि के द्वारा उनके चारित्र की रक्षा करना। धर्म के सच्चे नेता बनने के लिये सोलह 9. वैयावृत्यकरण-प्राचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, कारण भावनायें बतलाई गई हैं। उनके नाम और रुग्ण आदि साधुओं की प्रासुक औषधि प्रादि से लक्षण संक्षेप में इस प्रकार हैं सेवा शुश्रूषा करना। 1. दर्शनविशुद्धि-शंका, कांक्षा विचिकित्सा, 10. अर्हत भक्ति--छयालीस गुण विशिष्ट मूढ़ष्टित्व, अनुपगृहन, प्रस्थितीकरण. अवात्सल्य, अहंत देव की स्तुति, वंदना आदि के द्वारा भक्ति अप्रभावना ये पाठदोष, ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, करना। ऐश्वर्य, रूप, बल और तपश्चर्या इन पाठों के 11. प्राचार्य भक्ति--संघ के अधिपति प्राश्रय से आठ प्रकार का मद, कुदेव, कृशास्त्र दिगम्बर प्राचार्यों की भक्ति करना। पौर कुगुरु तथा इनके सेवक ऐसे छह अनायतन। और देवमूढ़ता गुरुमूढ़ता तथा लोकमूढ़ता ये तीन 12. बहुश्रुतभक्ति--बहुश्र तवंत मुनियों की मूढ़तायें ऐसे 8 + 8+6+3=25 दोष सम्यक्त्व भक्ति करना । के माने गये हैं। इन मलदोषों से रहित निशंकित 13. प्रवचन भक्ति--जिनवाणी की भक्ति, प्रादि माठ अंगसहित मोर प्रशम, संवेग आदि पाठ पूजा प्रादि करना । 1-30 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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