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________________ यह अच्छी तरह से कसा जा चुका है, परखा जा चुका है। और आज भी विज्ञान जगत् के लिए यह चुनौती है । इस विचार - दर्शन को भलीभांति समझ लेने पर लोक - रचना, विश्व का निर्माण श्रीर वस्तु के स्वरूप को समझाने में बड़ी सरलता हो जाती है और अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादिता के स्थान पर तर्कपूर्ण एक वैज्ञानिक विज्ञान सामने ग्रा जाता है । इसलिये यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि भगवान महावीर का अध्यात्म विज्ञानों का भी विज्ञान था । तीर्थंकरों का यह उपदेश सचमुच विशुद्ध सत्य है | जब तक हमें पूजते रहोगे, तब तक हम जैसे नहीं बन सकते । भगवान महावीर ने भी यही देशना दी थी कि सच्चे देवों की पूजा करने से स्वर्ग मिल सकता है, किन्तु साक्षात् निर्वाण की प्राप्ति तो श्रात्मा की अनुभूति से होगी। जहां ज्ञानानन्द की अनुभूति है, वहां संसार के सब प्रकार के सुख समय मात्र में निःसार प्रतीत होने लगते हैं । श्रात्मा का अनुभव सच में विलक्षण है । श्रात्मानुभूति के द्वारा ही वीतरागता की प्राप्ति होती है, शुद्धोपयोग की दशा बनती है श्रोर चैतन्य श्रात्मा अपनी ज्ञानचेतना में निश्चल हो जाती है । यह अनुभूति पर के प्राश्रय से प्राप्त नहीं हो सकती, स्वाश्रयी प्रवृत्ति से ही उपलब्ध होती है । इसलिये श्रध्यात्म मार्ग में स्वाधीनता को प्रवाश्यक ही नहीं, अनिवार्य माना जाता है । प्राचार्यदेव समझाते हुए कहते हैं इस श्रात्मा में राग-द्वेष रूप दोषों की जो उत्पत्ति होती है, उसमें अन्य किसी का कोई दोष नहीं है । यह अपराध तो स्वयं इस जीव के प्रज्ञान का है, श्रात्मा स्वयं अपराधी है । किन्तु यह ज्ञान होते ही कि मैं तो ज्ञान हैं, प्रज्ञान अस्त हो जाता है । जो अज्ञानी जीव राग की उत्पत्ति में पर द्रव्य को ही कारण मानते हैं, अपना कारणपना स्वीकार नहीं करते, उनकी बुद्धि शुद्ध ज्ञान से रहित महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International अन्ध है और वे मोह-नदी को पार नहीं कर सकते । इस प्रकार वीतरागता की उपलब्धि में शुद्धज्ञान बहुत बड़ा कारण है । किन्तु यह शुद्ध ज्ञान शुद्धदृष्टि से मिल सकता है। शुद्ध दृष्टि को ही शास्त्र की भाषा में निश्चय नय कहा गया है। भगवान महावीर के इस तत्व-उपदेश में ही उनकी वीतरागता और सर्वज्ञता की झलक मिल जाती है । क्योंकि उन्होंने सब एजेन्सियों को नकार कर एक मानव को ही नहीं, प्राणी मात्र को अपने श्राप की एजेन्सी बताया और कहा कि "जो श्रप्पा सो परमप्पा" जो श्रात्मा है, वही परमात्मा है । वस्तु से दोनों में कोई भेद नहीं है । भगवान महावीर का दर्शन कोई उलझन में डालने वाली शाब्दिक लकीर या प्रश्न नहीं है । यह तो सहज अनुभव का स्वारस्य है जो अखण्ड चिदानन्द चैतन्य तत्व का दर्शन कराता है और जिसके उपलब्ध हो जाने पर अन्य कोई उपलब्धि अवशिष्ट नहीं रहती । यद्यपि वस्तु को खरीदते समय मन में अनेक विकल्प उठते हैं, किन्तु खरीद कर उपयोग करते समय कोई विकल्प नहीं रह जाता। इसी प्रकार तत्व के अन्वेषण के समय में अनेकानेक विकल्प उत्पन्न होते हैं, किन्तु तत्त्र- निर्णयपूर्वक प्रात्मा में तन्मय हो जाने पर कोई विकल्प नहीं रह जाता, इसलिये प्रत्मानुभव-काल में वह अनुभव परोक्ष न होकर प्रत्यक्ष ही होता है । इस प्रकार निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों को लेकर प्रनेकान्त सिद्धान्त को प्रस्तुत किया और बताया कि जैनधर्म श्रनेकान्तमयी है । वस्तु में अनेक धर्म होते हैं उन धर्मों का उद्योतन करने वाला श्रनेकान्त सिद्धांत है | किन्तु यह सिद्धांत वस्तु के सत्य को प्रकट करने वाला है, जो वस्तु नहीं है, उसे श्रनेकान्त सिद्धांत से वरिंगत नहीं किया जा सकता । संक्षेप में अनेक युक्तियों, तर्क और प्रमाण के प्राधार पर जैनधर्म का जो विवेचन For Private & Personal Use Only 1-27 www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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