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________________ ओर ले जाती है वहां ग्रहिसक ऐसा साधन प्रस्तुत करता है कि जिससे मानव में करुणा का प्रवाह बह निकले क्या हम ऐसा व्यवहार कर रहे हैं ? इसका उत्तर दूसरे के पास खोजने की बजाय स्वयं के पास खोजना होंगे । "जणेण सद्धि होक्खामि " 'जो दूसरों का हाल होगा वह मेरा भी होगा ।' वह प्रज्ञानी ऐसा सोचने वाला हिंसा, झूठ, कपट, चुगली, धूर्तता आदि के स्वभाव को छोड़ सकेगा । परन्तु जो : समुद्दगंभीरसमा दुरासया, श्रचक्किया केरणइ दुप्पहंसया । सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो, वित्त कम्मं गइमुक्तमं गया ॥ श्रर्थात् समुद्र के समान गंभीर विचार वाला, दुर्जय, निर्भय किसी से नहीं दबने वाले विपुल श्रुतज्ञान से पूर्ण छ: काय के रक्षक होकर कर्मों को क्षय करके मोक्ष को प्राप्त होते हैं । अहिंसा वह है, जो सत्यान्वेषण के मार्ग की ओर ले जा सके । वह आत्म-तत्व ही सत्य है, जो हिंसक वातावरण से रहित है। उत्तरा० में आत्मा के विषय में लिखा है 'अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नंदरांवरणं ॥ अर्थात् प्रात्मा ही संसार सागर से पार कराने वाली वैतरणी नदी के समान है, आत्मा ही कूट शाल्मली वृक्ष है, श्रात्मा ही कामधेनु है और यही नन्दन बन हैं। 'तुमेव मित्त' तुमेव सत्त' श्रेष्ठ प्राचार वाली श्रात्मा मित्र रूप है और दुराचार वाली प्रात्मा शत्रु है । इस गहराई का स्पर्श करने वाला श्रहिंसक विचार श्रीर क्या हो सकता । ऐसी बात महावीर ने कही ऐसा सोचकर उसको जीवन में भी तो उतारकर देखें । श्रौर जीवन को इस दिशा की प्रोर मोड़ दें । प्रतानं उपमं करवा न 1-16 Jain Education International हनेय्य न घातये । श्रर्थात् प्रपने समान सब जीवों को जानकर मनुष्य न किसी को मारे और न मारने की ओर प्रेरित करे। और गीता का यह कथन जीवन में चरितार्थ करे तो निश्चय ही सुखशांति की प्राप्ति संभव हो सकती : "नियतं कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । कुरु शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥ अर्थात् नियत किये हुए स्वधर्मं कर, क्योंकि न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर- निर्वाह भी नहीं हो सकता । स्याद्वाद अनेकांत की दृष्टि प्राचार-विचार से प्रतप्रोत है, हिंसक भाव का किंचित् भी स्थान नहीं । अत्याचार अनाचार की भावना मानव को मरुस्थली टीले पर खड़ा कर देती है, जो हवा के वेग से ढह जाने वाली हैं । प्रतः ऐसी वैचारिक दृष्टि को क्यों न अपनाया जाय, जिससे हमारी भाधार शिला मजबूत रहे । जीवन निराशा से पूर्ण है इसमें हर्ष, आनन्द और उल्लास किञ्चित् भी नहीं है । निराशा एवं दुःख की शान्ति के लिए बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की प्रतिष्ठा की । जन्म, जरा, व्याधि एवं मृत्यु दुःख के कारण हैं । इन दुःखों की समाप्ति से परम सुख की प्राप्ति हो सकती । दुःख और दुःखों के कारणों से छुटकारा पाने के लिए बुद्ध ने ग्राष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करने को कहा । 1. सम्यक् दृष्टि, 2. सम्यक् संकल्प, 3. सम्यक् वचन, 4. सम्यक् कर्मान्त, 5. सम्यक् प्रजीव, 6. सम्यक् व्यायाम, 7. सम्यक् सस्मृति श्रीर 8. सम्यक् समाधि इन प्राष्टांग मार्ग का अनुसरण कर मनुष्य स्वावलम्बी बन सकता है और ये ही साधना पद्धति के साधन हैं । परन्तु मनुष्य अपने किये गये पापों से अपने महावीर जयन्ती स्मारिका 77 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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