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________________ 爱 भगवान् महावीर ने केवल एक पाप बताया था और वह था हिंसा । शेष 4 पाप तो हिंसा के ही भेद हैं। वे तब तक पाप नहीं जब तक कि उनमें हिंसा सम्मिलित नहीं हो । इसलिए प्रात्मोत्थान के लिए हिंसा से बचना प्रौर कषायों को क्षय करना श्रावश्यक है । यह ही भगवान् महावीर के उपदेशों का, जिनागम का संक्षेप है । अहिंसा के प्रतीक महावीर वर्तमान जैन संस्कृति के संस्थापक तीर्थंङ्कर ऋषभदेव की परम्परा में तीर्थङ्कर भ० महावीर प्रतिम कड़ी हैं । प्राचीन लिच्छवि गणतंत्र की राजधानी वैशाली में राजा सिद्धार्थ और राजमहिषी त्रिशला देवी के यहां उनका जन्म हुआ । राजघराने की विपुल वैभव सामग्रियों से सम्पन्न होने पर भी उन्होंने 30 वर्ष की पूर्ण यौवनावस्था में संसार और शरीर भोगों से विरक्त हो दिगम्बरी दीक्षा धारण की। 28 मूलगुणों का पालन करते हुए कठोर - जिन श्रमरण मार्ग का अनुसरण किया । एकान्त दुर्गम और बीहड़ वनों में जाकर उन्होंने श्रात्मसाधना की । अनार्य और श्रातताइयों द्वारा किये गये विभिन्न प्रकार के उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन किया । द्वादश वर्ष की अनवरत महासाधना के पश्चात् उन्होंने कैवल्य की प्राप्ति की । Jain Education International * पं० सुभाषचन्द्र दर्शनाचार्य, श्रीमहावीरजी दूसरों पर करना है उसे पहले स्वयं पर ही करके दिखाया जाय दूसरों को कल्याण का उपदेश देने से पूर्व अपना ही कल्याण किया जाय । उन्होंने किया भी ऐसा ही । श्रात्म-कल्याण के सारे प्रयोग पहले उन्होंने स्वयं पर किये बाद में जाकर दूसरों को उनका उपदेश दिया । केवलज्ञान प्राप्त हो जाने के अनन्तर भगवान् महावीर 30 वर्ष तक भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में विशेषकर बिहार प्रदेश में विहार करते हुए जीवों को उपदेश देते रहे। उन्होंने दूसरों को उपदेश देने से पूर्व स्वयं को ही ज्ञानपुञ्जों से आलोकित करना ठीक समझा । उन्होंने सोचा कि जो प्रयोग मुझे महावीर जयन्ती स्मारिका 77 प्र० सम्पादक त्रिशतृवर्षीय सुदीर्घ देशनावधि में तीर्थङ्कर भगवान् महावीर ने लोकोदय की भावना से अनुप्राणित वही उपदेश दिये जिनकों उन्होंने अपने आप में पूर्णरूप से आत्मसात् किया था। उनके उपदेश लोकोदय से कल्याणोदय पर्यन्त सामञ्जस्यपूर्ण थे । मोटे तौर पर अहिंसा, समानता, श्रनेकान्त, श्रात्मस्वातंत्र्य, कषायमुक्ति आदि महावीर के मुख्योपदेश कहे जा सकते हैं । विशाल भारत के विस्तृत वसुधा खण्ड पर तीर्थङ्कर महावीर द्वारा पुर्नस्थापित श्रहिंसा ही एक ऐसा तत्व है जिसकी सुदृढ़ नींब पर महावीर के महावीरत्व या जैनत्व का प्रचल महाप्रासाद लड़ा हुआ है । यदि महावीर के जीवन में से श्रहिंसातत्व को निकाल दिया जाये तो उसमें कुछ भी अवशेष नहीं बचेगा । महावीर के उपदेशों में सर्वाधिक For Private & Personal Use Only 1-9 www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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