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________________ समय की माँग * डॉ. जयकिशनप्रसाद खण्डेलवाल, प्रागरा जीवन के सभी क्षेत्रों में समय की मांग को सराहा और अपने ढंग से वे इसे प्रयोग में भी महत्त्व दिया जाता है। चाहे वह भौतिक क्षेत्र हो लाये । हमें प्रसन्नता की बात है कि यह अपरिग्रह या प्राध्यात्मिक, सांस्कृतिक क्षेत्र हो या साहित्यिक. मणुव्रत के रूप में व्यक्तिगत कल्याण की दृष्टि से समय के अनुसार लोगों की विचारधारा परिवर्तित ज्यापक रूप में अपनाया गया। निर्वाणोत्सव को होती रहती है । कुछ प्रान्दोलन स्थायी प्रभाव उपलब्धियों का मूल्यांकन हुआ है और इस तथ्य वाले होते हैं, जिनका गहरा प्रभाव पड़ता है। वे पर सभी एकमत हैं कि व्यापक जागृति हुई है। युगादर्श को प्रस्तुत करते हैं। महावीर निर्वाणोत्सव एक ही बात है कि हमें उपलब्धियों को संजोकर के उपलक्ष में देश-विदेश में जो भी गतिविधि रखना है. उसे अपने जीवन का अंग बनाना है। दिखाई पड़ी, उनमें से कुछ के दूरगामी परिणाम त्रुटियों की ओर दृष्टिपात करने का समय होंगे। यथा, जैन दर्शन के अनेकान्तवाद को हम नहीं है। प्राज के युग की मांग कह सकते हैं। इस पर अनेक दृष्टिकोण से विचार हुमा मौर यह वाद अनेक ____साधु और समाज का धनिष्ठ सम्बन्ध है। दृष्टिकोणों का सम्मिलित रूप प्रस्तुत करता है। साधु-संस्था ने सदैव समाज का मार्ग निर्देशन किया सच्चाई के सभी पहलुओं को हम जान लें, तभी है और श्रावक पक्ष भी अपनी पूर्ण श्रद्धा से उनको हम पूर्ण सत्य को प्राप्त कर सकते हैं । जीवन का पूज्यतम विभूति मानता है । युग की मांग है कि साधु-संस्था समाज को जीवन-दर्शन के समन्वय का स्थूल रूप चारों सम्प्रदायों के एक प्रति नवीन ढंग से, प्राधुनिक शब्दों में प्रोत्साहित ध्वज, एक मंच और एक कार्यक्रम तथा 'सम्मरण- करे । उनकी रुचि धर्म की अोर लगावे । णमोकार सूत्र' के प्रकाशन में दिखाई पड़ा । यह समन्वय मन्त्र में साधुओं की कोटियां दी हुई हैं किन्तु जैन समाज में कितने गहराई से पैठ गया है, यही प्रत्येक कोटि में भी कोटियां हैं। चारित्र को तो समीक्ष्य है पोर जितनी गहराई से पैठा है, उतना सदैव महत्त्व दिया जाता रहा है और भविष्य में ही लाभकारी है, मनेकान्तवाद के अनुरूप है। भी यह रहेगा किन्तु दिखावे एवं रूढ़ियों को समाज इसी प्रकार अपरिग्रहवाद का सिद्धान्त भी बहुत लादे नहीं रहना चाहता । समय रहते इस दिशा व्यापक सिद्ध हुआ है । व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक में प्रवृत्त होने की प्रावश्यकता है वरन युवा-जन के जीवन में इसकी धूम मच रही है । इसके व्या- से हम क्या माशा कर सकते हैं। उनमें प्रास्था का वहारिक पक्ष पर भी चिन्तन-मनन हुमा है । यह प्रायः प्रभाव होता चला जा रहा है । किस प्रकार युग की मांग के रूप में उभर कर पाया और युवाजन के हृदय में दृढ़ प्रास्था हो, धर्म के प्रति, इसकी उपयोगिता को राष्ट्र के नेताओं ने समझा, सिद्धान्तों के प्रति, साधु संस्था के प्रति--इन प्रश्नों महावीर जयन्ती स्मारिका 77 3-17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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