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________________ वसुमती- -- काश ! यह अपूर्व रहस्य पहिले ज्ञात हो जाता । मैं तो तन के नाश को ही चेतन का नाश मान बैठी थी । श्रात्मा के अजर अमरत्व पर कभी दृष्टि ही नहीं गई । 3 ज्ञानः स्व पर प्रकाशक है दीप की भांति । यद्यपि वह सबको देखता जानता है: तथापि संवेदन अपना करता है । ४ या व्यक्ति -- मैंने कहा था न कि श्रेष्ठी धनंजय की भक्ति प्रपूर्ण है । जिसकी दृष्टि में जड़ पदार्थों की नश्वरता एवं चैतन्य की शाश्वतता प्रत्यक्ष हो ज्ञान ज्योति ज्योतित हो उठी है, वहां अज्ञान का अधकार प्रवेश करने का दुस्साहस कैसे कर सकेगा ? (एक वार पुनः श्रेष्ठी की जय जयकार की ध्वनि नभ मण्डल को गुंजा देती है । शनैः शनैः सब अपने घरों की ओर लौट पड़ते हैं ।) 3-8 Jain Education International .....पटाक्षेप मुक्तक चले अन्दर करतनी क्या करेगी हाथ की माला, मरी जब तक न इच्छाएं मिले न मोक्ष का प्याला । अगर है मोक्ष की इच्छा तो काका मन करो वश में, तुम्हारी वासनाओंों ने तुम्हें बरबाद कर डाला ॥ For Private & Personal Use Only महावीर जयन्ती स्मारिका 77 www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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