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________________ परमो धर्मः” का प्रचार उस समय किया जब अच्छाइयों को दर्शाया है जिससे अनार्यों को ठेस न समाज में देवताओं को प्रसन्न करने के लिये पशु पहुंचे । अनेकान्त का सिद्धान्त जैन धर्म में सहिष्णुता बलि दी जाती थी। भगवान् महावीर ने समाज में एवं समन्वय की भावना को प्रज्वलित करता है नई चेतना का जागरण किया और जनता को पाठ और उपर्युत उदाहरण इस बात का ज्वलन्त पढ़ाया कि सब जीव समान हैं; हत्या प्रधर्म है। प्रमाण है । वृक्ष एवं पत्थरों में भी जीवात्मा विद्यमान है और जैन धर्म में लोभ, भोग और मोह के स्थान प्रत्येक मानव का छोटे से छोटे जीव की रक्षा करना पर त्याग पर जोर दिया गया है । चार्वाक के कर्तव्य है। जैन प्राचार्यों ने प्राणी मात्र की रक्षा भौतिकवाद के विरोध में अपरिग्रह का सिद्धान्त इस एवं “जियो और जीने दो' की भावना का उद्- धर्म की भारतीय संस्कृति को मौलिक देन है । तृप्ति बोधन किया । जनमात्र की भावना से ऊपर उठ । और संतोष, खाने, पीने और मौज करने में नहीं प्राणीमात्र में प्रेम एवं आपसी रक्षा का प्राद्वान अपितु अपनी प्रावश्यकतानों को सीमित रखने में इस धर्म में किया गया है । यहाँ तक ही नहीं, जैन है। अपनी निजी आवश्यकतानों से अधिक वस्तुओं धर्म में मनसा, वाचा, कर्मणा किसी को कप्ट देना का संग्रह करना मानव साथियों को दैनिक प्रावभी हिंसा है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि इयकतानों से गंचित रखना है जो कि धर्म भावना अहिंसा का सिद्धान्त जिसके माध्यम से प्राणीमात्र के विरुद्ध है । बढ़ती हुई गरीबी, मंहगाई और के उत्थान एवं प्रगति की कामना की गयो है, जैन दैनिक जीवन की आवश्यक वस्तुओं की कमी प्रादि धर्म का तत्त्व एवं मम है। आर्थिक समस्याएं भौतिकवादी विचारधारा के परिणाम है । अपरिग्रह के सिद्धान्त को वास्तविक संस्कृति एवं विचार समन्वय के लिये अनेकांत जीवन में उतार कर ही हम आर्थिक समस्यामों का का सिद्धान्त, जैन धर्म की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समाधान कर सकते हैं । देन है । इस सिद्धान्त के अनुसार, सत्य के कई रूप जैन धर्म में सामाजिक विषमतानों के विरोध होते हैं, वस्तु के कई दृष्टिकोण होते हैं । इस में प्रावाज बुलन्द की गयी है । कर्म का सिद्धान्त सिद्धान्त के माध्यम से समाज में फैली कट्टरता एवं जैन धर्म का प्रमुख सिद्धान्त है । 'जो जस करहि संकीर्णता के विरुद्ध प्रावाज बुलन्द की गई । प्राज तो तस फल चांखा', 'जंसी करनी वैसी भरनी' प्रत्येक राष्ट्र, जाति एवं मानव दूसरों के दृष्टिकोण प्रादि अनेक कहावतें कर्म के सिद्धान्त की पुष्टि को समझे बिना स्वयं को सर्वोपरि समझता है। करती हैं । जैन धर्म में जन्म के आधार पर समाज यही विचारधारा प्राज अन्तर्राष्ट्रीय तनाव एवं विभाजन पद्धति की भर्त्सना की गयी है क्योंकि इस संघर्ष का मूल कारण है । अनेकान्त का सिद्धान्त धर्म ने जन्म की नहीं अपितु कर्म की प्रधानता स्वीविश्व में प्रचलित मतभेदों पोर झगड़ों के उन्मूलन कार की है। उच्च जाति द्वारा निम्न जाति पर के लिए एक महत्त्वपूर्ण कदम है । यह सिद्धान्त अत्याचारों की निन्दा की गयी है। हरिकेशी पारस्परिक संघर्षों एवं विवादों के स्थान पर शान्ति चाण्डाल को जैन धर्मशास्त्रो में अपने शुद्ध आचरण और मैत्री को बढ़ावा देता है । इसी बात को ध्यान के लिये सम्मानित स्थान प्रदान किया गया है । जैन में रखते हुये जैन धर्म में सभी धर्मों एवं धर्मनायकों समाज में नारी को सम्मान एवं प्रादर्श की रष्टि से को महान बताया गया । जैन धर्मशास्त्रों में राम, देखा गया है । नारी को अबला और शक्तिहीन नहीं कृष्ण और सीता के प्रादशों को प्रस्तुत किया है और समझा गया है अपितु समाज का एक महत्वपूर्ण साथ ही साथ रावण को बंशीधर की उपमा दे प्रग मानहै। 4) महावीर जयन्ती स्मारिका 77 2-95 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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