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________________ मिट्टी के दीपों के बंटवारे मेंज्योति-पुरुष को मी खण्डित कर। मुझे दियों की कालिख को हो प्रांखों का ङ्गार बनाया। पर के कितने बिम्ब मिटाये अपना रूप सजानेपर को संवारने अपना बिम्ब मिटानो तो जाने । अन्तर का ज्योति-कलश, छलकानो तो जाने । आँख खुले के प्रेम निबाहे, सम्बन्धों को परम्परा में। हँसते को वरवान लुटाये, अरमानों की परम्परा में। फूलों को मदवाती गन्धों कोबहुत सहेला है हमने । पर कांटों को दंश-चमन को कितना परहेजा है हमने। अपने सुख की सेज सजाने हम कितने प्रकुलायेफरणा के नीर बहाकर दुखियों पर अकुलानो तो जाने । अन्तर का ज्योति-कलश छलकानो तो जाने ॥ धर्म बना व्यापारबाजारों के भावों सा। पर भावों की प्रणयीवेमोल ननारी जाती है। शील सत्य झुठलाया जाता, सरे माम चौराहे पर। लज्जा अनावरित होकर के खड़ी हुई दो राहे पर। जग को बहुत बनाया हमने छल छन्दों सेअपनी धूमिल तस्वीर जड़ा लो तो हम जाने, अन्तर का ज्योति-कलश छलकाओ तो जाने । 2-84 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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