SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा विचरता रहता है ।24 भ्रमण करना उसके लिए प्राकृत व्याकरण के ई. श्री ह्रो क्रीत क्लान्त क्लेश प्रशस्त माना गया है । म्लानस्वप्नस्पर्शहर्हिगषु' (प्राकृत प्रकाश 3.62), डा. ग्रीफिथ ने व्रात्य को धार्मिक पुरुष के रूप सूत्र के अनुसार र ह के मध्य इकार का आगम में माना है ।26 एफ. प्राई सिन्दे ने व्रात्यों को होकर 'अरिहंत' तथा प्राकृत की परम्परा के अनुसार प्रार्यों से पृथक माना है। वे लिखते हैं - वस्तुतः प्रकार का प्रागम होकर 'अरहंत' रूप प्राकृत भाषा व्रात्य कर्मकाण्डी ब्राह्मणों से पृथक् थे। किन्तु में बनते हैं। अथर्ववेद ने उन्हें प्रार्यों में सम्मिलित ही नहीं किया, प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्राकृत भाषा में इसका एक उनमें से उत्तम साधना करने वालों को उच्चतम रूप 'अरुह' भी प्रयोग किया है-'अरुहा सिद्धापरियों स्थान भी दिया है 127 (मोक्ष पाहुड 6/104) सम्भवत: इस प्रहा शब्द व्रात्यलोग व्रतों को मानते थे, पहन्तों (सन्तों) पर तमिल का प्रभाव हो । की उपासना करते थे और प्राकृत भाषा बोलते थे। 'अर्हन्' शब्द के विभिन्न भाषामों में अनेक रूप उनके सन्त ब्राह्मण सूत्रों के अनुसार ब्राह्मण और क्षत्रिय थे।28 व्रात्यकाण्ड में पूर्ण ब्रह्मचारी को व्रात्य इस प्रकार देखने में आते हैं-- कहा है 129 निष्कर्ष यह है कि प्राचीनकाल में व्रात्य शब्द संस्कृत अर्हन प्राकृत का प्रयोग श्रमण संस्कृति के अनुयायी श्रमणों के अरिहंत तथा प्ररहत पालि लिए होता रहा है। अथर्ववेद के व्रात्य काण्ड में अरहन्त जैन-शौरसेनी रूपक की भाषा में भगवान् ऋषभ का ही जीवन उदृङ्कित किया गया है । भगवान् ऋषभ के प्रति मागधी प्रलहत तथा अलिहंत अपभ्रशं वैदिक ऋषि प्रारम्भ से ही निष्ठावान रहे हैं और अलहतु तथा अलिहतु तमिल उन्हें वे देवाधिदेव के रूप में मानते रहे हैं । अरुह कन्नड़ अरुहंत, प्रह जैन धर्मावलम्बियों के परमाराध्य देव हैं । इसी कारण अनादिनिधन मन्त्र में इन्हें सर्व- अरहंत शब्द का प्रति प्राचीन इतिहास है। प्रथम नमस्कार किया गया है-'णमो अरहताणं जैन वाङ्मय के अति प्राचीन ग्रन्थों में तो इस शब्द णमो सिद्धाणं' । अरहंत शब्द प्राकृत है। इसका का प्रयोग हुअा ही है, किन्तु वैदिक, बौद्ध एवं संस्कृत रूप है 'अर्हन्' । 'अहं पूजायाम्' अर्थात्-पूजा- संस्कृत वाङमय में भी इस शब्द का प्रयोग उपलब्ध र्थक 'अहं' धातु से 'प्रहः प्रशंसायाम्' पाणिनी-सूत्र होता है । से प्रशंसा अर्थ में 'शतृ' प्रत्यय होकर 'अर्हत्' शब्द विनोबा भावे ने ऋग्वेद के एक मन्त्र का निष्पन्न होता है । प्रथमा के एक वचन में 'उगिदचा' उद्धरण देते हुए जैन धर्म की प्राचीनता सिद्ध की सर्वनामस्थाने धातोः' पाणिनि से नुम्' का प्रागम है । वे कहते हैं- ऋग्वेद में भगवान की प्रार्थना में होकर 'अर्हन्' पद बनता है। सम्बोधन एक वचन एक जगह कहा गया है-अर्हन इदं दयसे विश्व. में भी 'महन्' रूप बनता है। म्बम्' (ऋग्वेद 214132110) हे अहन तुम इस प्राकृत भाषा में 'शतृ' प्रत्यय के स्थान पर तुच्छ दुनिया पर दया करते हो इसमें पहन और 'स्त' प्रत्यय होकर 'अर्हत' रूप बनता है। साथ में दया दोनों जैनों के प्रिय शब्द हैं, मेरी तो मान्यता प्रह 2-70 महावीर जयन्ती स्मारिका 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy