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________________ उस संस्कृति में पले-पुसे लोग अपने सामाजिक, मतियों के साथ बैल भी अंकित हैं जो ऋषभ का राजनैतिक आर्थिक एवं धार्मिक हितों के संरक्षण पूर्व रूप हो सकता है। के लिए भी युद्ध करना पसन्द नहीं करते थे। अहिंसा उनके दैनिक जीवन-व्यवहार का प्रमुख इसी पर डा. राधाकुमुद मुकर्जी ने अपनी हिन्दु मंग थी। सभ्यता नामक पुस्तक में लिखा है : श्री चन्दा ने 6 अन्य मोहरों पर खड़ी हुई मतियों की ओर भी दैनिक जीवन की दिशा में भी वे लोग प्रगति ध्यान दिलाया है । फलक 12 और 118 प्राकृति के शिखर पर थे। उनके आवास, ग्राम और नगर 7 (मार्शल कृति मोहनजोदडो) कायोत्सर्ग नामक व्यवस्थित थे और वे हाथी व घोड़ों की सवारी भी योगासन में खड़े हुए देवताओं को सूचित करती करते थे। उनके पास आवागमन के साधन भी है। यह मुद्रा जैन योगियों की तपश्चर्या में विशेषथे। यहां तक कि उनमें भक्ति मोर पुनर्जन्म के रूप से मिलती है, जैसे मथुरा संग्रहालय में स्थापित विचारों का भी विकास था। तीर्थ कर श्री ऋषभदेव की मूर्तियाँ । ऋषभ का अर्थ है बैल जो प्रादिनाथ का लक्षण है। मुहर श्रमण संस्कृति और पुरातत्व-सिन्धघाटी के संख्या F.G.H. फलक दो पर अंकित देवमूर्ति में उत्खनन के सहयोगी श्री रामप्रसाद चन्दा ने अपने एक बेल ही बना है। सम्भव है यह ऋषभ का एक लेख में लिखा है-मोहनजोदडो से प्राप्त लाल ही पूर्व रूप हो। यदि ऐसा हो तो शंव धर्म का पाषाण की मूर्ति, जिसे पूजारी की मति समझ मूल भी ताम्र-युगीन सिन्धु सभ्यता तक चला लिया गया है, मुझे एक योगी की मूर्ति प्रतीत होती जाता है । है। वह मुझे इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए वैदिक साहित्य में श्रमण तत्व प्रेरित करती है कि सिन्धुघाटी में उस समय योगाभ्यास होता था और योगी की मद्रा में वात्य-अथर्ववेद में व्रात्य शब्द का कई बार मूर्तियां पूजी जाती थीं। मोहनजोदडो और हडप्पा प्रयोग हुआ है । हमारी दृष्टि से यह शब्द श्रमण से प्राप्त मोहरें जिन पर मनुष्य रूप में देवों की परम्परा से ही सम्बन्धित होना चाहिए। प्राकृति प्रकित है, मेरे इस निष्कर्ष को प्रमाणित वात्य शब्द अर्वाचीन काल में प्राचार और करती है। संस्कारों से हीन मानवों के लिए व्यवहृत होता रहा है ।अभिधान चिन्तामणि कोश में भी यही अर्थ सिन्धुघाटी से प्राप्त मोहरों पर बैठी अवस्था किया गया है। मनुस्मृतिकार ने लिखा है - में अकित मूर्तियां ही योग की मुद्रा में नहीं है क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण योग्य अवस्था प्राप्त किन्तु खड़ी अवस्था में अंकित मूर्तियां भी योग की करने पर भी असंस्कृत हैं क्योंकि वे व्रात्य हैं और कायोत्सर्ग मुद्रा को बतलाती हैं। मथुरा म्यूजियम वे पार्यों के द्वारा गहरणीय हैं ।' आगे लिखा हैमें दूसरी शती की कायोत्सर्ग में स्थित ऋषभदेव जो ब्राह्मण, सतति उपनयन आदि व्रतों से रहित जिन की एक मूर्ति है । इस मूर्ति की शैली सिन्धु से हो उस गुरु मन्त्र से परिभ्रष्ट व्यक्ति को व्रात्य नाम प्राप्त मोहरों पर प्रकित खडी हुई देव मूर्तियों की से निर्दिष्ट किया गया है । ताण्ड्य ब्राह्मण में एक शैली से बिल्कुल मिलती है। ऋषभ या वृषभ का व्रात्य स्तोत्र है जिसका पाठ करने से अशुद्ध व्रात्य अर्थ बैल होता है और ऋषभदेव तीर्थ कर का भी शुद्ध और सुसंस्कृत होकर यज्ञ आदि करने का चिह्न बैल है। मोहर नं. 3 से 5 तक की देव. अधिकारी हो जाता है । इस पर भाष्य करते हुए 2-68 महावीर जयन्ती स्मारिका 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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