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________________ __ भगवान् महावीर के समय वैदिक विद्वान् बोलचाल तथा प्रन्थ रचना में संस्कृत का प्राश्रय लेते थे जिससे कि जन साधारण धर्म का मर्म न समझ सकें और जनता के कर्मकाण्ड प्रादि में पुरोहितों का एकाधिपत्य कायम रहे। भगवान् महावीर और बुद्ध ने इस एकाधिकार को समाप्त करने और जनता तक धर्म का रहस्य समझाने के लिए उस समय के जनसाधारण में प्रचलित बोलचाल की भाषा प्राकृत का सहारा लिया । धर्मग्रंथ भी इसी भाषा में लिखे गए । आज की हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में प्रचलित बहुत से शब्दों का प्रादि स्रोत प्राकृत में प्राप्त होता है । हिन्दी के विकास क्रम को भले प्रकार हृदयंगम करने के लिए प्राकृत भाषा का अध्ययन प्रत्यन्त आवश्यक है। -प्र० सम्पादक भगवान महावीर और बुद्ध की परम्परा में जन-भाषाओं का विकास * डा. प्रेम सुमन जैन, उदयपुर ईसा पूर्व छठी शताब्दी में मानव ने विभिन्न चाहते थे। प्रगुत्तर निकाय के तिक-निपात के क्षेत्रों में प्रात्म-निर्भरता और स्वतन्त्रता प्राप्त की एक सुत्त में उन्होंने कहा भी है कि तथागत द्वारा थी। लोकतन्त्र के विकास के साथ-साथ उस समय उपदिष्ट धर्म खुला हुमा ( भाषा आदि के बन्धन धर्म और भाषा का क्षेत्र भी व्यापक हुअा था। से रहित) ही चमकता है, ढंका हुमा नहीं ।। उस समय के प्रमुख साधक और चिन्तक भगवान् मज्झिम निकाय के किन्ति सुत्त से ज्ञात होता है महावीर तथा बुद्ध ने समग्र समाज को नैतिक- कि भगवान बुद्ध का जोर शब्दों पर नहीं था, अर्थों उत्थान के पथ पर आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया पर था। न उन्हें संस्कृत से द्वेष था न मागधी था। अतः उन्होंने अपने धर्म का प्रचार जन- से मोह। वे केवल ऐसी जीवित भाषा में उपदेश सामान्य की ऐसी भाषा में किया जो उस समय देना चाहते थे जिसे लोग आसानी से समझ सकें। देश के बहुभाग में प्रचलित थी। इस भाषा को इसलिए उन्होंने मागधी को अपने उपदेशों का बौद्ध एवं जैन प्रागमों में मागधी कहा गया है, जो माध्यम चुना था । मागे चलकर पालि तथा अर्धमागधी के नाम से मगध जनपद की भाषा के प्रति बौद्ध धर्म में जानी गयी है । कोई प्राग्रह नहीं था । भाषा कोई भी, जन-जन के भगवान् बुद्ध का धर्म किसी वर्ग व जाति समझ में प्राने वाली होनी चाहिये । भगवान् बुद्ध विशेष के लिए नहीं था । प्रत वे अपने धर्म के इस बात से परिचित थे कि एक ही वस्तु के लिए उपदेशों को किसी भाषा विशेष में नहीं बाँधना विभिन्न स्थानों की भाषाओं में अलग-अलग शब्द * उड़ीसा में जनवरी 76 में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय बौद्ध एवं जैनधर्म सम्मेलन में प्रस्तुत निबन्ध । महावीर जयन्ती स्मारिका 17 2-47 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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