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________________ अतः शास्त्रों का पठन करते समय यह जानना भी प्रावश्यक है कि अमुक बात से ग्रंथकार का वास्त विक अभिप्राय क्या है ? कौनसी नय का श्राश्रय लेकर उन्होंने वह बात कही है। साथ में यह भी जानने की बात है कि शास्त्रकार जिस नय का आश्रय लेकर कोई बात कहते हैं तो इसका अभिप्राय यह नहीं है कि दूसरी नय की अपेक्षा जो बात ठीक है वह उसका खण्डन करते हैं। हाँ वे उसे गौण अवश्य कर जाते हैं । यही जैन शास्त्रकारों के कथन की विशेषता है कि जहां एक कोण से वे किसी बात का खण्डन करते हैं तो दूसरे दृष्टिकोण से उसे स्वीकार भी कर लेते हैं । ऐसा करने पर ही सर्वधर्मसमभाव अथवा सब धर्मों का समन्वय संभव है । श्राचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने अपने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय नामक ग्रंथ में क्या ही अच्छी बात कही है— एकेनाकर्षन्ती इलथयन्ती वस्तुतत्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥ अर्थात् जब जैन शास्त्रकार किसी एक नय से पदार्थ या वस्तु तत्व का दही मथने वाली गोपी के हाथों की तरह वह नय प्रधान हो जाती है श्रीर दूसरी स्खण्डित नहीं होती उसका अस्तित्व बना रहता है । आज समाज में जो निमित्त उपादान अथवा निश्वय व्यवहार के झगड़े समाज का वातावरण गंदा कर रहे हैं उसके पीछे कारण यही है कि हम नय विवक्षा को भूल कर शास्त्रों का अर्थ करने लगे हैं । धर्मतीर्थ का प्रवर्तन निश्चय और व्यवहार दोनों नयों को जानने वाले ही कर सकते हैं । केवल एक नय का आश्रय लेकर मोक्षमार्ग का प्रवर्तन नहीं किया जा सकता । उनही प्राचार्य ने स्पष्ट कहा है कि 'व्ययहार निश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् । पं० प्राशाधरजी ने भी अपने मनगारधर्मामृत में यही बात कही है - - जई जिरणमयं पवज्जह ता मा व्यवहार णिच्छए मुनह । एकेरण बिना हिज्जइ, तित्थं प्र रा पुरा तच्चं ॥ वर्णन करते हैं तो नय गौण । वह यदि तू जिनमत में अपनी प्रवृत्ति करना चाहता है तो व्यवहार और निश्चय को मत छोड़ क्योंकि एक के भी प्रभाव में धर्मतीर्थं का प्रभाव ह जायगा । Jain Education International भगवान् महावीर ने 'भी' के प्रयोग के साथ साथ 'ही' के प्रयोग का भी विधान किया है । सापेक्ष वाक्यों में 'ही' उच्चरित नहीं होने पर भी वक्ता के अभिप्राय में छुपी रहती है । हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि हम वक्ता के कथन का अपने मनोनुकूल अर्थ करना छोडें । हम उस प्रपेक्षा को समझने का प्रयत्न करें जिस अपेक्षा से वक्ता ने वह बात कही है । इसे समझ लेने पर अधिकांश झगड़े स्वतः ही समाप्त हो जावेंगे । मौर तब धर्मतत्व हमारी प्रात्मा में उतरेगा | जैनत्व का अंश हमारे में प्रावेगा । तब हम नाम निक्षेप के जैनी न रह कर भाव निक्षेप से जैनी बनेंगे । यदि हमने पूर्वाग्रह छोड़कर निष्पक्ष दृष्टि से शास्त्र स्वाध्याय किया तो सहज ही हमारी समझ में यह बात भाजायगी कि किस दृष्टि ने पुण्य हेय भौर किस दृष्टि से उपादेय है । उपादान का क्या कार्य है और निमित्त का क्या ? अपने अपने स्थान पर दोनों का ही महत्व है । धर्मात्मानों के बगैर धर्म की सत्ता नहीं रह सकती । धर्म का एक लक्षण यह भी है कि ( x ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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