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________________ "सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं राष्ट्र ही नहीं अपितु विश्व की मानव जाति में तवैव" एक रूपता भा सकती है और वर्तमान में राष्ट्रों इसी जन कल्याणमयी भावना की प्रस्तुति का जो विध्वंसक रूप है वह भी प्रतीत का विषय अथर्ववेद में भी मिलती है बन सकता है। तभी प्रत्येक मानव सच्चे अर्थ में भारतीय संस्कृति (श्रमण संस्कृति) का अनुयायी "श्रमेण लोकांस्तपसा पिपति" होकर श्रमण शब्द का अधिकारी हो सकता है अर्थ 11-5-4 (सूक्ति त्रिवेणी) (ब्रहमचारी अपने श्रम एवं तप से लोगों की "समे य जे सव्वपाण भूतेषु से हु समणे" अथवा विश्व की रक्षा करता है।) प्र. व्या. 2-5 यदि आज मानव इस बहुअर्थी श्रम के सिद्धांत जो समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखता को जीवन में साकार रूप दे दे तो समाज एवं है वस्तुत: वही श्रमण है । : : कब वे दिन दिखेंगे :: श्री मंगल जैन 'प्रेमी' जबलपुर पानी और दूध घनिष्ठ मित्र मिलकर एक रूप होते हैं, एक दूसरे के अनुरूप होते हैं, अग्नि पर तपते समय(दुखों को झेलते समय) पानी दूध के साथ... सच्ची मित्रता निभाता है, स्वयं वाष्पीकृत हो उड़ता" पर दूध को जलने से बचाता है, दूध मित्रता का" बोध कराता है. पानी को उड़ते देख, अपने से विलग होते देख, उफना उठता है, मित्र को रोकने पातुर हो उठता है, तब पानी के चंद छींटेदूध का उफान शांत करते हैं, जैसे मित्र, मित्र सेगले मिलते हैं, तब लगता है" कब दिन वे दिखेंगे? जब मानव, मानव के मित्र बनेंगे ? 2-32 महावीर जयन्ती स्मारिका 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jaineli
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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