SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो व्यक्ति इस ग्रंथ को नहीं देखता, नहीं में प्राकृत भाषा के रयणसार ग्रंथ का नामोल्लेख मानता, नहीं सुनता, नहीं पढ़ता, नहीं चिंतन है और रचयिता का नाम वीरनन्दी है जो संस्कृत करता, नहीं भाता है वह व्यक्ति ही मिथ्यादृष्टि टीकाकार प्रतीत होते हैं । इस टीका की खोज करनी होता है। चाहिए।" समझ में नहीं पाया कि डाक्टर सा. जैसे महान ग्रंथकार इस रचना ने ग्रथ को बिना देखे ही कैसे मान लिया कि वीर को न देखने न पढ़ने, न सुनने न मानने वाले को नन्दी संस्कृत टीकाकार प्रतीत होते हैं जबकि उन्होंने मिथ्यादृष्टि बताते ? ऐसी गाथा की रचना तो अपने स्वयं सूची में रचयिता के स्थान पर वीरनन्दी का ग्रंथ की महत्ता दिखाने के लिए भट्टारक ही कर नाम स्पष्ट लिखा हुप्रा बताया है। चूकि प्रति सकते हैं न कि संसार त्यागी आत्मसाधना में लीन सामने नहीं है अतः अन्य कल्पना करना ठीक नहीं कुदकुदाचार्य । है। फिर भी प्राप्त सूचनानुसार सूची में प्राकृत इस ग्रंथ में ऐसी ही अन्य गाथाए हैं जिनका भाषा के रयणसार के कर्ता का नाम वीरनन्दी है सूक्ष्म परीक्षण करने से इनमें विषमताए एवं न कि कुन्दकुन्द । जब तक इसे गलत सिद्ध नही विपरीतता मिलेगी। किया जावे इस सूची के वर्णन को सही मानना ___डा० देवेन्द्रकुमारजी ने अपनी प्रस्तावना में समीचीन होगा । मध्यकाल में वीरनन्दी हुए हैं इसे कुदकुद कृत मानने का प्रयास किया है। उन्होंने प्राचारसार लिखा था सम्भव है रयणसार उन्होंने प्रस्तावना के पृ० 92 पर 'रचनाए' शीर्षक भी उन्हीं का लिखा हुआ हो। परा में लिखा है कि श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने विद्वान् सम्पादक डा० देवेन्द्रकुमारजी ने प्राचार्य कुदकुद की 22 रचनाओं का उल्लेख इसकी कई गाथाएं प्रक्षिप्त बतलाकर मूल ग्रन्थ से किया है जो इस प्रकार है। इस सूची में रयणसार अलग प्रस्तुत की हैं किन्तु फिर भी ग्रंथ में कुछ का नाम भी है। इस सूची के साथ रयणसार के गाथाए ऐसी और हैं जिन पर क्षेपक लिखा हुया सम्बन्ध में श्री मुख्तार सा. का उक्त मत उद्धृत है अतः इसके मूल प्रश और क्षेपकांश का निर्णय नहीं किया इससे पाठक यही समझे कि मुख्तार हो पाना सहज नहीं है। सा. रयणसार को कुदकुद कृत ही मानते थे जब अतः अतरंग बहिरंग परीक्षण से यह ग्रंथ कि वास्तविक स्थिति दूसरी ही है। वीतराग परम तपस्वी दिगम्बर कुदकुदाचार्य द्वारा ___डा० देवेन्द्र कुमार जी ने अनेकांत के जनवरी लिखा हुआ नहीं मालूम होता अपितु किसी भट्टारक मार्च ७६ के अंक में 'रयणसार-स्वाध्याय परम्परा या और किसी द्वारा उनके नाम पर लिखा हा में' शीर्षक लेख में लिखा है-"रयणसार नाम की प्रतीत होता है। एक अन्य कृति का उल्लेख दक्षिण भारत के भण्डारों विद्वानों से मेरा नम्र अनुरोध है कि वे इस की सूची में हस्तलिखित ग्रथों में किया गया है। ग्रंथ का सम्यक् प्रकार से तुलनात्मक अध्ययन कर श्री दिगम्बर जैन म. चित्तामूर, साउथ पारकाड अपना मंतव्य प्रस्तुत करें ताकि लोगों को सही मद्रास प्रांत में स्थित शास्त्रभण्डार में क्रम सं0 39 स्थिति ज्ञात हो जावे। * इसमें विषयों का व्यवस्थित वर्णन नहीं है । दान, सम्यग्दर्शन, मुनि, मुनिचर्या प्रादि का क्रमश. वर्णन न होकर कभी दान का, कभी सम्यग्दर्शन का, कभी पूजन का, कभी मुनि का वर्णन इधर उधर अप्रासंगिक रूप से असंबद्ध रूप से मिलता है।) 2-24 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy