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________________ Me सम्पादकीय ☺☺☺☺ राजस्थान जैन सभा, जयपुर द्वारा प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाली स्मारिका श्रृंखला में अब तक पिरोई गई 13 कड़ियों के साथ यह 14 वीं कड़ी पिरोते हुए हमें वरबस की स्वनामधन्य श्रद्धय गुरुवर्य पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थं का नाम स्मरण हो आता है जिनके सत्परामर्श एवं आशीर्वाद से सभा ने स्मारिका प्रकाशन द्वारा भगवान् महावीर का पावन सन्देश तथा जैनधर्म, दर्शन, कला, इतिहास, साहित्य आदि से सम्बन्धित सांदर्भिक सामग्री जन जन तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण सुनिर्णय लिया और जीवन पर्यन्त जिन्होंने उसके सम्पादन का भार वहन किया । वे 'शिष्यादिच्छेत् पराजयम्' इस वेदवाक्य के अनुसर्त्ता थे । अपने शिष्यों को अपने से आगे बढ़ते देख उनका हृदय प्रसन्नता से पुलकित हो उठता था । श्राज भी सैंकड़ों उपाधिधारी तथा अनुपाधिधारी उनके शिष्य श्रपने ढंग से उनके अधूरे छोड़े कार्य को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। श्रद्धानत है हमारा मस्तक उनके पुनीत चरणों में । अभी अभी भगवान् महावीर का 2500 वां निर्वाण वर्ष हम बड़ी धूमधाम से मना चुके हैं मौर नेता तथा विद्वद्वृन्द उनकी उपलब्धियों और अनुपलब्धियों का लेखा जोखा लगाने में संलग्न हैं । जैन के विभिन्न सम्प्रदायों में ऐक्य स्थापन भी निर्वारण वर्ष के उद्देश्यों में से एक था और एकता का वह उद्घोष जब तब जैन पत्रों तथा प्लेटफार्मों पर सुनाई भी पड़ा किन्तु इस प्रोर वास्तविक रूप से हम कितना आगे बढ़े हैं यह प्रश्न विचारणीय एवं समीक्षणीय है। जैन एकता में मुख्य बाधक हमारे बाह्य क्रियाकाण्ड, पूजास्थल, तीर्थक्षेत्र प्रादि हैं। इनको लेकर दिगम्बर श्वेताम्बर ही नहीं लड़ते दिगम्बर दिगम्बर भी लड़ते हैं, मुकदमे बाजी करते हैं, एक दूसरे को नीचा दिखाने का, छीछालेदार करने का प्रयत्न करते हैं । जैनों की जो शक्ति कुछ ठोस उपलब्धियों के लिए लगना चाहिये वह ऐसे कार्यों में लगे क्या यह हम महावीर के अनुयायियों के लिए शोभा की बात है ? संस्कृत के एक कवि ने कहा है Jain Education International न वं भिन्ना जातु वरन्नीह धर्म न वै सुखं प्राप्तुवन्तीह भिन्नाः । न वै भिन्ना गौरवं प्राप्नुवंति न वै भिन्ना प्रशमं रोचते ॥ जिन लोगों में फूट है, जो संगठन शील नहीं हैं उन्हें न तो इस लोक में धर्म की प्राप्ति हो सकती है, न वे सुखी ही हो सकते हैं; न उन्हें गौरव की प्राप्ति हो सकती है औौर न उन्हें कभी जीवन में शांति मिल सकती है । ( vii ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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