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________________ 'पउम चरिय' के छियतरवें पर्व में लंका में श्रीराम प्रविष्ट होकर सबसे पहले सीता के पास जाते हैं। दोनों का मिलन देखकर देवगरण फूल बरसाते हैं और सीता के निष्कलंक तथा पुनीत सात्विक चरित्र का साक्ष्य देते हैं । इस ग्रन्थ में श्रीराम की किसी शंका या सीता की अग्नि परीक्षा का कोई उल्लेख भी नहीं है । 'उत्तर पुराण' में भी राम परीक्षा के बिना सीता को स्वीकार करते हैं। सीता अनेक रानियों के साथ दीक्षा लेती है । अन्त में सीता को स्वर्ग मिलता है । स्वयंभू की सीता- स्वयंभू के 'पउमचरिउ' में श्रारम्भ में मूक सीता के दर्शन होते हैं । सागरवृद्धि भट्टारक तथा ज्योतिषी सीता के कारण रावण एवं राक्षसों के विनाश की भविष्यवाणी कर देते हैं : तेहि हरणेव रक्खु महारगे । जंगय- रंगराहिव तरयहें कारणे । श्रीर श्रायहे करण का रोग होसइ विरणासु बहु-रक्तसहु ॥ वन में सीता के चरित्र का विकास मौन रूप में होता है । सीता युद्धों के विपरीत है : कर चलण-देह-सिर खण्डरगहुं । गिव्विरण माए हउ मण्डगहु ॥ हउ ताएं दिण्णी केहादु । कलि-काल-कियन्तहु जेहाहूं ॥ सीता हरण के समय वह अपने को बड़ी अभागिनी मानती है : को संथवइ मई को सुहि कहीं दुक्खु महन्तउ | जहि जहि नामि हउ तं तं जि पएसु पलिनउ ॥ 1. रावरण के प्रलोभनों तथा उपसर्गों से सीता का हिमालय जैसा प्रचल और गंगा जल जैसा पवित्र चरित्र रंचमात्र भी विचलित नहीं हो पाया । सीता श्रग्नि परीक्षा में सफल होती है : किं किंजइ अण्णइ दिव्वे जेरंग विसुज्भहो महु मरणहो । जिह करेंगेय लालि डाहुचर अच्छणि मज्झे हुनारुहरण हो || अन्त में सीता का विरागी मन स्त्री न बनने की घोषणा कर देता है : वह तिह करेमि पुगु रहुबइ । जिह ण पाडिवारी तियमइ ॥ स्वयम्भू ने सीता के चरित्र को अनुपम तथा दिव्य स्वरूप प्रदान किया है । जैन राम- साहित्य में सीता - निर्वासन - प्रसंग: राम कथा के समान सीता- निर्वासन के प्राख्यान को प्रस्तुत करने का सर्व प्रथम श्रेय महर्षि वाल्मीकि को है । गुणभद्र के 'उत्तर पुराण' में सीता-त्याग की कोई चर्चा नहीं मिलती। इसकी श्रृंखला में महाभारत, हरिवंश पुराण, वायु पुराण, विष्णु पुराण, नृसिंह पुराण श्रोर प्रनायक जातकं भी जाते हैं जिनमें सीता निर्वासन प्राख्यान का अभाव है । परन्तु सीता-त्याग को अधिकांश जैन रामसाहित्य स्वीकार करता है । सीता- निर्वासन के मुख्य चार कारण थे : महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only 2-9 www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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