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________________ ★★★ अध्यक्षीय श्राज से 2575 वर्ष पूर्व भारतवर्ष की ही नहीं सम्पूर्ण विश्व की बड़ी ही चिन्ताजनक स्थिति थी। सांसारिक विषय भोगों में मानव इस प्रकार फंस गया था कि उसे हेवाहेय, कर्तव्य - कर्तव्य प्रादि का कतई ज्ञान नहीं रहा था । वह भुला बैठा था कि जिस तरह मेरी आत्मा है उसी प्रकार दूसरों की भी है, जिस प्रकार मैं सुग्बी होना चाहता हूं उसी प्रकार दूसरे प्राणी भी सुखी होना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । जिह्वालोलुपता की तो उसने हद ही करदी थी। पशु यज्ञ से भी आगे बढ़ कर वह मनुष्य यज्ञ पर आगया था। यह ही नहीं अपने इन कुकृत्यों के समर्थन हेतु उसने न केवल नए नए ग्रन्थों का निर्माण ही किया था अपितु पुराने चले आए ग्रन्थों में भी घटाबढ़ी की थी । वेद भी इससे अछूते नहीं रहे थे । उनमें भी नरबलि तक सम्मिलित होगई थी जिह्वालोलुप यह कह कर बलि का समर्थन कर रहे थे कि देवों के लिए की गई बलि हिंसा नहीं है । प्राणियों के चीत्कार से प्रकाश गूंज रहा था चारों मोर हाहाकार मचा था । सब चाहते थे कि कोई ऐसा शक्तिसम्पन्न मानव इस धरा पर अवतार ले जो उनके कष्टों का अन्त कर सके दुनिया को सत्य की श्रोर मोड़ सके, प्राणियों को दुःख से छुडा उन्हें सुख और शांति प्रदान कर सके । 1 त्रयोदशी को भगवान महावीर ने इस थे जिस पर चल कर दुःखी प्राणियों का अतः उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। बारह फलस्वरूप प्राज से 2575 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला धरा पर जन्म लिया। वे जन्म से ही ऐसे मार्ग की खोज में दुःख दूर हो सके । घर में रहकर ऐसा संभव नहीं था । वर्षं तक की कठोर साधना के पश्चात् जो मार्ग उन्हें सूझा था जीवन में अहिंसा का अवतरण तथा विचारों मे अनेकान्त तथा वाणी में स्याद्वाद का मार्ग | उन्होंने कहा तुम स्वयं जीओ मगर दूसरों को भी जीने दो । प्राग्रह मत करो, सब की सुनो, विभिन्न दृष्टिकोणों से चिन्तन कर सत्य का निर्णय करो । जिस दृष्टिकोण से तुम्हारी बात सच है दूसरे दृष्टिकोण से वह असत्य भी हो सकती है । एक दृष्टिकोण केवल प्रांशिक सत्य का दर्शन कराता है । भ० महावीर का बताया मार्ग केवल एक काल के लिए नहीं था । वह कालातीत था । उस पर चलने की जितनी आवश्यकता तब थी प्राज भी है। उनका सन्देश जन जन तक पहुंचे इस पवित्र भावना के वशीभूत हो स्व० पं० चैनसुखदासजी की प्रेरणा से राजस्थान जैन सभा ने सन् 1962 से जयन्ती पर एक ऐसी स्मारिका के प्रकाशन का निर्णय लिया जो सब की सम्मिलित हो उसमें निबन्ध श्रादि समन्वय परक हों, साम्प्रदायिकता को उभारने वाले न होकर एकता तथा संगठन पर बल देने वाले हों साथ ही जैन इतिहास तथा संस्कृति का परिचय कराने वाले हों । स्मारिका के अब तक 13 अंक पाठकों के हाथ में पहुंच चुके हैं। 14 वां श्रंक उनके हाथ में है । यह निर्णय करना उनका काम है हम कहां तक अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल हुए हैं । स्व० पं० चैनसुखदासजी के स्वर्गवास के पश्चात् सन् 1969 से स्मारिका का सम्पादन पं० भंवरलालजी पोल्याका जैन दर्शनाचार्य करते भारहे हैं। इस वर्ष भी उन्होंने ही हमारा अनुरोध स्वीकार कर अस्वस्थ होते हुए भी काफी अल्प समय में इस कार्य के सम्पादन में जिस कर्त्तव्यनिष्ठा और लगन का परिचय दिया है उसके लिये मेरे पास श्री पोल्याकाजी को धन्यवाद अर्पित करने को शब्द नहीं है । मैं श्री पोल्याकाजी एवं उनके सहयोगी श्री पदमचन्दजी का अत्यन्त आभारी हूं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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