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________________ जैनदर्शन प्रत्येक द्रव्य को स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करता है। उसकी निश्चय दृष्टि से यह मान्यता है कि एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कुछ नहीं बिगाड़ सकता । प्रात्मा स्वयं ही अपने कर्मोदय से सुख दुःख जीवन-मरण पाता है, कोई अन्य इसमें कारण नहीं है। इसलिए वह ऐसे ईश्वर की सत्ता से भी इंकार करता है जो जगत का कर्ता-हर्ता तथा जीवों को सुख दुःख का देने वाला हो । यह सम्पूर्ण निबंध लेखक ने केवल निश्चय दृष्टि का प्राश्रय लेकर लिखा है । प्राचार्य उमास्वाति ने जो 'सुख दु ख-जीवितमरणोपग्रहाश्च' परस्परोपग्रहो जीवानाम् प्रादि सूत्रों में जो पुद्गल को जीव के सुख-दुख जीवन मरण का कारण बताया है यह व्यवहार दृष्टि से है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्र० सम्पादक जैन-दर्शन का तात्विक पक्ष : वस्तु स्वातन्त्र्य * डा. हुकमचन्द भारिल्ल, जयपुर जैन दर्शन में वस्तु के लिए अनेकान्तात्मक को स्वतन्त्रता की अजान कारी ही पर्याय की परतन्त्रता स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, उसमें वस्तु- है। पर्याय के विकार के कारण मैं परतन्त्र ह" स्वातन्त्र्य को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थाग प्राप्त है। ऐसी मान्यता है, न कि पर पदार्थ । स्वभाव-पर्याय उसमें मात्र जन-जन की स्वतन्यता की ही चर्चा को तो परतन्त्र कोई नहीं मानता पर विकारीनहीं, अपितु करण-करण की पूर्ण स्वतन्त्रता का सतर्क पर्याय को परतन्त्र कहा जाता है । उसकी परतन्त्रता व सशक्त प्रतिपादन हुमा है। उसमें 'स्वतन्त्र होना का अर्थमात्र इतना है कि वह परलक्ष्य से उत्पन्न है' की चर्चा नहीं 'स्वतन्त्र है' की घोषणा की गई हुई है। पर के कारण किसी द्रव्य की कोई पर्याय उत्पन्न नहीं होती। है। 'होना है' में स्वतन्त्रता की नहीं, परतन्त्रता की स्वीकृति है। होना है' अर्थात् नहीं है। जो है विश्व का प्रत्येक पदार्थ पूर्ण स्वतन्त्र एवं परिउसे क्या होना ? स्वभाव से प्रत्येक वस्तु स्वतन्त्र मनशील है, वह अपने परिणमन का कर्ता-धर्ता ही है। जहां होना है' की चर्चा है, वह पर्याय की स्वयं है उसके परिणमन में पर का हस्तक्षेप रंचमात्र चर्चा है। जिसे स्वभाव की स्वतन्त्रता समझ में भी नहीं है। यहाँ तक कि परमपिता परमेश्वर प्राती है, पकड़ में प्राती है, अनुभव में प्राती है, (भगवन् ) भी उसकी सत्ता एवं परिणमन का कर्ताउसकी पर्याय में स्वतन्त्रता प्रकट होती है अर्थात् हर्ता नहीं है, दूसरों के परिणमन अर्थात् कार्य में उसको स्वतन्त्र पर्याय प्रकट होती है। हस्तक्षेप की भावना ही मिथ्या, निष्फल और दुःख का कारण है। क्योंकि सब जीवों के जीवन मरण, वस्तुतः पर्याय भी परतन्त्र नहीं है। स्वभाव सुख-दु ख स्वयं कृत कर्म के फल हैं। एक-दूसरे को महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-99 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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