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________________ अनेक कहावतें व मुहावरे बदल गये, प्राचार. साधना की दृष्टि से एक सूत्र प्रदान किया हैविचार की प्रणालियाँ वदल गयी, दैनिक जीवन के प्राचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त' । क्रिया-कलाप और रीतियाँ बदल गयीं। यह क्रम जीवन में सामंजस्य तभी पा सकता है जब हमारे चिरन्तन काल से चल रहा है और अनन्तकाल विचारों में अनेकान्त दृष्टि हो। अनेकान्त की तक चलता रहेगा। इसी में मानव-समाज की मनोभूमिका के बिना बाह्य आचरण में अहिंसा प्रगति का माप निहित हैं । असल में मनुष्य स्वभाव व्याप्त नहीं हो सकती । अनेकान्त दृष्टि के विकास की विशेषता है कि उसे अपनी वर्तमान स्थिति से के बिना हमारे बाह्य जीवन में जो अहिंसा दीख सन्तोष नहीं होता। बीता क्षण उसके लिए जीर्ण पड़ती है वह मात्र लोक संस्कार या लोक रूढ़ि है। हो जाता है। वह प्रतिक्षण नूतनता का प्राकांक्षी इसीलिए नींव है पोर अहिंसा कलश है। कलश होता है। वह चाहता है कि उसे कुछ ऐसी उप.. हमारी शोभा है. लेकिन प्राधार तो अनेकान्त ही लब्धि हो जो अपूर्व हो। इसका एक कारण ग्रह हो सकता है। नींव की मजबूती पर ही कलश टिक भी है कि प्रत्येक नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के कन्धे सकता है । पर चढ़कर कुछ दूर का देखती है। उदय और दार्शनिक क्षेत्र में अनेकान्त वस्तु या द्रव्य की अस्त पर ही प्रगति का पुल निर्मित होता है। स्वतन्त्र सत्ता का उद्घोष करता है। द्रव्य या सत् ___ सत्य की खोज में निरत मानव की भटकन की स्वतन्त्र सत्ता विलक्षणात्मक है अर्थात् उस में भी कम नहीं है । वह विचारों के अरण्य में, आग्रह। उत्पत्ति विनाश तथा स्थायित्व ये तीन लक्षण के गिरि-शिखरों पर, विरोध के सागर में और निरन्तर रहते हैं। इन तीन मूल लक्षणों में से एकाकीपन के श्मशान में भटक गया है, खो गया किसी एक को या उसके भी किसी विशिष्टि अंश है। वह सत्य का स्पर्श करना चाहता है, लेकिन को अपने सिद्धान्त का प्राधार मानने वाले सत्य छिप जाता है। अन्धे की भांति हाथी के मत-मतान्तरों में समन्वय स्थापित करने और किसी एक अवयव को पकड़ कर उसने मान लिया उनकी एकान्त धारणा या मान्यता का निरसन है कि सत्य यही और उतना ही है। प्राग्रह इतना करने के लिए जैनाचार्यों ने अनगिनत प्रयास किये तीव्र और तेज है कि आँख खुलती ही नहीं प्रोर हैं। इससे अनेकान्त उत्तरोत्तर शास्त्रीय एवं वैज्ञाखोलना चाहता भी नहीं । विवेक नेत्र का नाम ही निक रूप ग्रहण करता गया है। बिहारी-सतसई अनेकान्त है। विवेक की आंख खुलते ही सम्पूर्ण के न जाने कितने अर्थ उपलब्ध हैं । कालिदास के हाथी का दर्शन होने लगता है और प्राग्रह अहंकार मेघदूत को पाश्र्वाभ्युदय काव्य में एक-एक चरण की पकड़ छूट जाती है। प्रतिकूलता अनकुलता में के रूप में समाविष्ट करके प्राचार्य जिनसेन ने बदल जाती है। दूसरे का मिथ्या सत्य प्रतीत होने मेघदूत को नया-गौरव प्रदान कर दिया। गोस्वामी लगता है। इस विश्व में तत्व या अस्तित्व की तुलसीदास कृत रामचरितमानस की "सब कर दृष्टि से प्रवास्तविक या यथार्थ कुछ नहीं है। इस मत खगनायक एहा । करिय रामपद पंकज नेहा ।" विराट सृष्टि में प्रण से लेकर ब्रह्माण्ड तक सब चौपाई के 16 लाख तक अर्थ किये जा चुके हैं । कुछ सत्य और वास्तविक है-उसी का विस्तार है। एक ही शब्द के अनेक परस्पर विरोधी अर्थ करने परिवर्तनशीलता का दर्शन तो मात्र पर्यायसापेक्ष के हजारों उदाहरण विश्व साहित्य में मिलते हैं। है, जैसे कि एक पूरी फिल्म के या दृश्य के सैकड़ों समय के थपेड़े खाकर शब्द और ध्वनियों के अर्थ टुकड़े। बदल गये हैं। हम अपनी ही बात के स्पष्टीकरण जैनाचार्यों ने जीवन-सन्तुलन एवं समता- के लिए बार-बार तात्पर्य और मतलब का सहारा महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-95 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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