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________________ भगवान महावीर ने मन में सब जीवों के प्रति समभाव, कर्म में अहिंसा और वचन में स्याद्वाद का उपदेश दिया था। यह जैनधर्म की उसकी अपनी विशेषता है। अगर मानव इन उपदेशों पर अमल करे तो धरती स्वर्ग बन सकती है । प्रापसी झगड़ों का कारण यह है कि हम अपनी हो चलाना चाहते हैं, हम ही ठीक हैं, जबकि संभव है दूसरा जो कह रहा है वह भी किसी दृष्टि से ठीक हो । महावीर ने कहा था कि दूसरों के कथन का वह ही अर्थ करो जिस दृष्टिकोण को लेकर कहने वाले ने वह बात कही थी, अपना दृष्टिकोण उस पर मत थोपो । एक ही बात एक दृष्टिकोण से गलत होते हुए भी दूसरे दृष्टिकोण से सही हो सकती है । समाज में और राष्ट्रों में जो विग्रह खड़े हो जाते हैं उसका कारण एकांगी दृष्टिकोण के अतिरिक्त कुछ नहीं होता। व्यावहारिक जीवन में स्याद्वाद की उपयोगिता पर विद्वान् लेखक ने बड़े अच्छे ढंग से प्रकाश डाला है । प्र० सम्पादक अनेकान्त और जीवन-व्यापार * श्री जमनालाल जैन, वाराणसी जैनधर्म या जैनदर्शन को अनेकान्त दर्शन भी परम्परा उन्हें मिली थी । अनेकान्त या समन्वय की कहा जाता है। प्रत्येक धर्म, दर्शन या तत्वज्ञान की प्रणाली भी धर्म-दर्शन के क्षेत्र में जीवित थी, लेकिन अपनी मूल दृष्टि होती है, एक शैली होती है। उसे परिपूर्णता, स्पष्टता, संस्कारिता और शास्त्री. उसी के अनुसार सम्पूर्ण प्रतिपादन होता है । यह यता प्रदान करने का महत् कार्य पहले-पहल दृष्टि शरीर में प्राणों की भांति व्याप्त होती है। महावीर ने ही किया। 12 वर्ष के कठोर साधना. जैसे वृक्ष का रस, उसकी प्रात्मा, उसका गुण काल के उपरान्त उन्हें केवलज्ञान की या सर्वज्ञता जड़ से लेकर पत्तों तक समान रूप से व्याप्त रहता की प्राप्ति हुई। ढाई हजार वर्ष पूर्व का उनका है, वैसे ही प्रत्येक तत्वज्ञान या सिद्धान्त का विस्तृत युग मत मतान्तरों तथा वाद-विवादों का संघर्षफैलाव भी दृष्टि-विशेष के अनरूप रहता है। स्थल बना हुआ था । वैदिक-प्रोपनिषदिक विचारजैनधर्म, तत्वज्ञान, प्राचार-विचार, दर्शन और धारामों में ही समन्वय नहीं था। अनेक परिव्राजक सिद्धान्त सब में अनेकान्त दृष्टि तिल में तेल की एवं भिक्षु अपनी एक-एक शाखा-प्रशाखा को पकड़ . भांति और दुध में घी की भाँति अोतप्रोत है। कर प्राग्रह की ध्वजा फहरा रहे थे। कुछ तो अपने को शास्ता, तीर्थकर, सर्वज्ञ भी कहते थे। भगवान महावीर अनेकान्त-दृष्टि के प्रवर्तक बाह्य उपकरणों, साधनों, क्रियाओं मादि का भी कहे जाते हैं। जैनधर्म के वे अन्तिम शास्ता या आग्रह पराकाष्ठा को पहुंचा हुआ था। स्वयं जैन महत थे और अपने पूर्ववर्ती 23वें तीर्थंकर परम्परा में भी कई परम्पराएं प्रचलित हो गयी पार्श्वनाथ की अहिंसा तथा संयम-समता-प्रधान- थीं। एक दूसरे में समन्वय और सहयोग के स्थान महावीर जयन्ती स्मारिका 77 -1-93 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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