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________________ रूप और रस की साहचर्य प्रतीति कराने की उनमें जिस स्वभाव की वृद्धि कुछ कुछ होतो रहती सामर्थ्य नहीं है परन्तु रूप रसादि अनेक विषयों का है उसकी कहीं पूर्णवृद्धि हो जाना भी सम्भव है। अनुभव कोई न कोई प्रवश्य करता है, नहीं तो इसी नियम के अनुसार ज्ञानगुण की वृद्धि भी जो प्राम के देखने के अनन्तर जीभ पर पानी क्यों प्रा उत्तरोत्तर एक दूसरे से अधिक होती हुई दिखाई जाता ? प्रतः गवाक्षगत प्रेक्षक के समान समस्त देती है वह किसी जीव में सर्वोकृष्ट हो सकती इन्द्रियों तथा मन में रहकर प्रेरणा करने वाला है। जैसे आकाश को नापने पर बढ़ता हुआ दिखाई इन्द्रियों के अतिरिक्त कोई दूसरा पदार्थ भी है। देता है परन्तु इसकी भी वृद्धि सर्वोत्कृष्ट है । केवल. इस प्रकार इन्द्रियां करण हुई और इनको जो ज्ञान होना इस अनुमान से सिद्ध है । 5 अन्य भी प्रेरणा देता है वह प्रात्मा सिद्ध हुप्रा 121 इसी कई अनुमान हैं जैसे सूक्ष्म, अन्तरित और दूरप्रकार के अन्य उदाहरण स्याद्वाद मंजरीकार वर्ती पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं; क्योंकि वे अनुमेय प्राचार्य मल्लिषेण ने दिए हैं, जिनसे प्रात्मा की हैं। जैसे पर्वत की गुफा की अग्नि प्रत्यक्ष होने पर सिद्धि होती है ।23 भी उसकी सिद्धि अनुमान से होती है ।28 इसी प्रकार चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण प्रादि भविष्यत् विषयों आगम वही अप्रमाण हैं जो परस्पर विरुद्ध को सत्य जताने वाले ज्योतिषशास्त्र को जानता है अर्थ कहते हों। जो प्राप्तप्रणीत आगम है वह वह ग्रहण पड़ने आदि की भविष्यवाणी पहले ही प्रमाण ही है । प्राप्तकथित शास्त्रों में जीवहिंसा, कर देता है। इस प्रकार सर्वज्ञ प्राप्त के द्वारा छेद तथा ताप इत्यादि दुष्कर्मों का निषेध है प्रतः प्रणीत पागम प्रमाण ही है । शास्त्र वे ही वे विशुद्ध हैं। रागादि दोष जिसके नष्ट हो गए अप्रमाण होते हैं, जिनके प्रणेता निर्दोष न हो। हों वह प्राप्त है, ऐसा प्राप्त होना प्रसम्भव नहीं कहा भी हैराग, द्वेष अथवा मोहवश झूठ बोला है । रागादि किसी जीव में अत्यन्त नष्ट हो जाते जाता है। जिसके ये दोष नहीं रहे वह झूठ क्यों हैं जैसे हम लोगों के रागादि का उच्छेद, प्रकर्ष बोलेगा ? हमारे शास्त्र प्रणेता तो कर्मों का नाश और अपकर्ष देखा जाता है, अथवा जैसे सूर्य के होने से दोषरहित हो चुके हैं। ऐसे निर्दोष शास्त्रों प्रकाश को रोकने वाले मेघसमूह की कहीं हीना - में 'प्रात्मा अकेला है' इत्यादि वचनों से प्रागम धिकता देखी जाती है अतः उनका कहीं नाश भी प्रमाण द्वारा जीव द्रव्य की सिद्धि होती है ।27 हो जाता है। जिस जीव के रागादि दोष सर्वथा जिन वाह्य विषयों को ज्ञान जानता है, उनकी विलीन हो गए हों वही सर्वज्ञ प्राप्त भगवान् है। सिद्धि पहले ही की जा चुकी है। जो यह प्रश्न प्रश्न-रागादि अनादि हैं उनका क्षय से दो किया था कि जिन पदार्थों को जानना हो उनके साथ ही उनको जानने वाला ज्ञान उत्पन्न सकता है ? होता है या उनके बाद । इसका उत्तर यह है कि उत्तर - प्रापका यह कहना ठीक नहीं है। हम लोगों का प्रत्यक्ष तो जो विद्यमान हों उन्हीं उपाय से ऐसा हो सकता है। अनादिकालीन को जान सकता है और स्मरण बीती हुई वस्तु को स्वणंमल का सुहागा, अग्नि प्रादि का पुट देकर ही जान सकता है । परन्तु शब्द और अनुमान तीनों क्षय किया जाता है, उसी प्रकार अनादि काल से काल के पदार्थों को जान सकते हैं। ये दोनों ज्ञान लगे हुए जीव के रागादि दोषों का नाश भी उनके यद्यपि निराकार हैं तो भी प्रतिव्याप्ति दोष नहीं प्रतिपक्षी रस्नत्रय के अभ्यास से हो जाता है । दोष है। पदार्थ का निश्चय इस प्रकार होता है कि ज्ञान क्षीण होने पर केवलज्ञान हो जाता है । किसी भी समय हो परन्तु उसी पदार्थ को जान महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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