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________________ हुआ है। इस प्रकार अपने में सम्मिलित कर लिया, मानों में प्रलय और सृष्टि की कल्पना करते हैं, किन्तु वह उपनिषदों की ही मूलवस्तु हो। अतः, उप- जैन जगत् को अनादिप्रवाह मानते हैं । निषदों में जैन आचार-विचार का जो पूर्वरूप वैदिक धर्मानुयायी मानते हैं कि सनातन धर्म पाया जाता है, उससे यह निर्णय लेना सर्वथा को ईश्वर की प्रेरणा से ब्रह्मा ने प्रकट किया, भ्रान्ति है कि जैनधर्म उपनिषदों से प्राविभूत किन्तु जैनों के मत से युग-युग में तीर्थंकर होते हैं और वे अपने जीवनानुभव के आधार पर सत्य-धर्म का उपदेश करते हैं । वैदिकधर्म में मोक्ष को दुर्लभ वैदिक या हिन्दू-धर्म और जैन धर्म के मानते हैं, किन्तु जैनों की मान्यता है कि मोक्ष सिद्धांतों में अनेक ऐसे अन्तर मिलते हैं, जो जैनधर्म केवल मानवीय अधिकार की वस्तु है। एक मानते को स्वतन्त्र धर्म प्रमाणित करते हैं। जैन वेद को हैं कि भगवत्कृपा से सुख मिलता है, किन्तु दूसरे नहीं मानते, स्मृतिग्रन्थों और ब्राह्मणों के अन्य का मत है कि सुख-दुःख का भोग मनुष्य के सत्प्रमाणभूत ग्रन्थों को भी प्रमाण नहीं मानते । प्रसत कर्मों पर निर्भर करता है। जैनधर्म में महत्त्वपूर्ण पार्थक्य की बात तो यह है कि जैनधर्म धर्मद्रव्य, गुणस्थान, मार्गणा आदि अनेक तत्व के धार्मिक तत्व और उनकी सारणि स्पष्ट और ऐसे हैं, जो हिन्दुधर्म में नहीं हैं। जैनन्याय में निश्चित है, किन्तु हिन्दू-धर्म में परस्पर-विरोधी स्याद्वाद, नय, निक्षेप आदि बहुत-से तत्व ऐसे अनेक सिद्धान्त हैं : 'वेदा विभिन्नाः श्रुतियों हैं, जो जनेतर न्याय में नहीं है। किन्तु, इतने विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम् ।' इसके भेदों के रहते हए भी दोनों धर्मों के अनुयायियों में अतिरिक्त, वैदिक ईश्वर को जगन्नियामक मानते सांस्कृतिक दृष्टि से अद्भुत एकरूपता परिलक्षित हैं, किन्तु जैन नहीं मानते । हिन्दू-धर्मवाले युग-युग होती है । सच और झूठ ॐ श्री मोतीलाल सुराना, इन्दौर एक दिन सच और झूठ का आमना सामना हो गया। सच ने मुह फेर लिया तो झूठ बोला, मैं तुझसे बड़ा हूं, मेरी तरफ देख । यह सुन सच आश्चर्य से देखने लगा उसकी ओर । तब झूठ बोला- मैं यदि न होऊ तो तेरा अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाय । तुझे कोई पहचाने नहीं। झूठ की इस बात पर सच को हँसी आ गयी। सोचने लगा-सच ! आखिर झूठे ने भी एक बार तो सच का आसरा लिया। 1-66 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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