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________________ हमें याद है प्रसिद्ध विद्वान् श्रौर पत्रकार श्री सत्यदेवजी विद्यालंकार ने एक बार अपने एक निबंध में लिखा था कि जैनधर्म और वैदिक धर्म सतत् प्रवाहशील नदी के आमने-सामने के दो किनारे हैं जो कभी नहीं मिलते। एक तीन है तो दूसरा छह । शब्द दूसरे हो सकते हैं मगर उनका अभिप्राय यह ही था। जैनधर्म और वैदिक धर्मो में किन बातों में वैषम्य है और किन में साम्य । इन बातों का तुलनात्मक संक्षिप्त अध्ययन प्रस्तुत किया है विद्वान् लेखक ने अपनी इस रचना में । जैनधर्म बनाम वैदिक धर्मं जैनधर्म, भारत के अतिप्रचलित धर्मों में बौद्धधर्म और वैदिक धर्म या हिन्दू धर्म से सघनता के साथ सम्बद्ध है । भारतीय होने के साथ ही तीनों धर्म समगति रहकर विकसित-वर्द्धित होते रहे हैं। प्रत्येक ने एक दूसरे के उतार-चढ़ाव को देखा है, परस्पर एक ने दूसरे पर प्रहार किया और भेला । यही कारण है कि एक का दूसरे पर प्रभाव स्पर्श अङ्कित हो गया है । वैदिक धर्म या हिन्दू धर्म व सनातन धर्म के नाम से रूढ़ हो गया है। हिन्दू धर्म की यदि व्यापक व्याख्या की जायगी, तो जैनधर्म भी हिन्दूधर्म के अन्तर्गत माना जायगा । किन्तु. रूढ अर्थ के सामने यौगिक अर्थ की मान्यता मद्धिम पड़ जाती है । हिन्दू शब्द की व्याख्यानों में जैनधर्म को हिन्दू धर्म के विद्रोही के रूप में स्वीकार करने का भाव प्राभासित होता है। फिर भी निष्पक्षता की बात तो यह है कि जैनधर्म भारत का स्वतन्त्र महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International प्र० सम्पादक * प्रो० श्रीरंजनसूरिदेव, पटना धर्म है। इसका निर्णय दोनों धर्मों के शास्त्रों के अन्तरसाक्ष्य से हो जाता है । वैदचतुष्टय हिन्दू धर्म का प्राचीन ग्रन्थ है । पौराणिक कहते हैं कि वेदव्यास ने वेदों का संकलन यज्ञ की श्रावश्यकताओंों को दृष्टि में रखकर किया। वेद के तीन विभाग हैं: मन्त्र, ब्राह्मण और उपनिषद् । मन्त्रसमुदाय संहिता है, तो ब्राह्मणं यज्ञ-याग आदि से सम्बद्ध वेदमन्त्रों की व्याख्या करता है । ब्राह्मण ग्रन्थ के ही अन्तिम भाग प्रारण्यक और उपनिषद् है, जिनमें दार्शनिक तत्वों ही वेदान्त कहा गया है । की विशद पर्यालोचना की गई है। उपनिषदों को विषय की दृष्टि से वेद की कर्मकाण्ड एवं ज्ञानकाण्ड के रूप में वर्गीकृत किया गया है । संहिता, ब्राह्मण और प्रारण्यक कर्मकाण्ड का विषय है और उपनिषद् ज्ञानकाण्ड का । वेदों का प्रधान विषय है देवता की स्तुति For Private & Personal Use Only 1-63 www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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