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________________ अनेकांत का सेतु : विचारों के तट ग्राध्वीप्रमुखा कनकप्रभा । अनेकांत दर्शन में अस्ति, नास्ति, अस्ति-मास्ति, अवक्तव्य, अस्ति अबक्तव्य, नास्ति अश्क्तव्य, अस्ति-मास्ति अवक्तव्य यह सप्तभंगी वस्तुबोध की न्यूनतम प्रक्रिया है। इसके विस्तार की कोई इयता नहीं है। इस आधार पर यह स्वीकार किया जा सकता है कि प्रत्येक वस्तु अर्मतधमत्मिक होती. हा एक समय में एक ही धर्म का प्रतिपादन संभव है, इसलिए उसका प्रतिपादन अपेक्षाभेद के साथ किया जाता है। यह क्थ्य भी ज्ञातव्य है कि बस्तु के अनंतद्यमों को स्वीकार करने पर भी उनको अभिव्यक्ति देने की किसी में नहीं है। ऐसी स्थिति में सापेक्षता का सिळीत ही समाधायक हो सकता है। - नुष्य एक विचारशील प्राणी है। विचार का का आधार खोजने के लिए अनेकांत की परिक्रमा करनी आधार है मस्तिष्क। मस्तिष्क की संरचना एक होगी। ही प्रकार की नहीं होती। विचार-तरंगों का प्रवाह भी एक जैन दर्शन अनेकांतवादी दर्शन है। यह न केवल समान नहीं होता। मनुष्य के आसपास का परिवेश उसके द्रव्यवादी है और न केवल पर्यायवादी है। द्रव्यार्थिक और विचारों को एक ठोस धरातल देता है। परिवेश बदलता पर्यायार्थिक दृष्टिकोण का समन्वित रूप जैन दर्शन है। इसने रहता है. इसलिए विचारों में भी स्थायित्व नहीं रह पाता। एकांततः नित्यता-अनित्यता, सामान्य-विशेष, वाच्यएक दिन की अथवा एक घंटे की विचार-यात्रा का सर्वे किया अवाच्य. अस्तित्व-नास्तित्व आदि वस्तुधर्मों की अवस्थिति जाए तो एक बेतरतीब-सा विचार-व्यूह उभरकर सामने आ को मान्य नहीं किया। अमुक तत्त्व नित्य या अनित्य ही है, जाता है। एक व्यक्ति का विचार-वैविध्य इस तथ्य को ऐसा मिथ्या अभिनिवेश यहां टिक भी नहीं सकता। आग्रह उजागर करता है कि विचार-भेद मानव-जीवन की सहज वहीं पनपता है, जहां एकांत होता है। मनुष्य स्वयं जड़ और प्रक्रिया है। इस सहजता के आधार पर दूसरे के विचारों को चेतन-इन दो विरोधी तत्त्वों की युति है। ऐसी स्थिति में एक सहमति मिल जाए या उसके प्रति सापेक्ष दृष्टिकोण अपना को ही सब-कुछ मानने का औचित्य प्रमाणित नहीं होता। लिया जाए तो विचारों का एक सुंदर गुलदस्ता तैयार किया आधार खेती का जा सकता है। किसानों की गोष्ठी हो रही थी। गोष्ठी में चर्चा का प्रश्न अस्तित्व का विषय था खेती। खेती कैसे होती है? इस प्रश्न पर अनेक भारत में अनेक जातियों, धर्मों, संस्कृतियों, कृषिकारों ने अपने विचार प्रकट किए। उन विचारों में परंपराओं और दार्शनिक विचारधाराओं को पल्लवित होने विविधता थी। एक-दूसरे के विचारों में मेल न होने से वे का अवसर है। एक बीज से विकसित पौधे की विभिन्न अपनी-अपनी बात पर अड़ गए। चर्चा का निष्कर्ष नहीं टहनियों की तरह इन सबका उत्स एक है। प्रत्येक जाति, निकल पाया। किसान हताश हो गए। संयोग से वहां धर्म आदि का स्वतंत्र अस्तित्व है, पर उसकी सुरक्षा अन्य कृषिशास्त्र का विशेषज्ञ पहुंच गया। किसानों ने उसको जाति, धर्म आदि की स्वीकृति में ही संभव है। दूसरे का अधिमान दिया। उनकी समस्या सामने आई। कृषि विशेषज्ञ अस्वीकार स्वयं के अस्तित्व का सीधा नकार है। यत सत ने सबकी बात सुनकर अपना मंतव्य प्रस्तुत कियातत् सप्रतिपक्षम्-जो भी अस्तित्ववान है, वह अपने एक कहे खेती होत बरसे सघन घन, विरोधी अस्तित्व के कारण ही है, इस दार्शनिक अवधारणा दूजो कहे खेती भूमि सेती निपजती है। HEREHE स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष.95 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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