SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकांठ और अरस्तू डॉ. आनंदप्रकाश त्रिपाठी 'उला । जहाँ पाश्चात्य जगत में अरस्तु के पूर्व यह मान्यता थी कि द्रव्य वह निरपेक्ष सत्ता है जो अपने अस्तित्व एवं ज्ञान के लिए किसी पर निर्भर नहीं है, वहीं अरस्तु ने द्रव्य की निरपेक्षता को समाप्त कर द्रव्य एवं आकार को सापेक्ष माना है। उसके अनुसार द्रव्य एवं आकार आपस में परिवर्तित होते रहते हैं, अथति ॥ द्रव्य आकार में और आकार द्रव्य में बदलता रहता है। उदाहरणार्थ लकड़ी द्रव्य है तथा भेड, की आदि आकार हैं। पुनः लकड़ी आकार है तो वृक्ष द्रव्य और वृक्ष आकार है तो बीज द्रव्य है। श्चात्य दर्शन में ज्ञानियों के सम्राट के रूप में अपने गुरु प्लेटो की ही नहीं, अपितु पितामह गुरु सुकरात प्रसिद्ध अरस्तू ने अपने चिंतन एवं दार्शनिक की भी खबर ली। सुकरात का सिद्धांत 'ज्ञान ही परम शुभ विचारों से ज्ञान एवं दर्शन-प्रेमियों को अत्यधिक प्रभावित है' अरस्तू को मान्य नहीं था, क्योंकि इसमें उन्हें एकांत की किया है। यूनान के एक नगर स्टैगिरा में 384 ई. पू. में बू आती थी। उनका मानना था कि यदि किसी के समक्ष जन्म लेकर 322 ई. पू. में प्राणांत होने तक (63 वर्षों तक) शुभ ही शुभ हो, ज्ञान ही ज्ञान हो तथा अशुभ एवं अज्ञान का उन्होंने दर्शन की जो सेवा की है, उसके लिए वे आज भी कोई विकल्प न हो तो उसके शुभ एवं ज्ञान को स्वीकार अमर हैं और युगों-युगों तक अमर रहेंगे। एथेंस के इस करने का कोई महत्त्व नहीं होगा अर्थात् अरस्तू को सुकरात महान दार्शनिक ने दर्शन के अध्ययन को प्रोत्साहित करने के का यह ऐकांतिक विचार कभी अच्छा नहीं लगा था। लिए 335 ई. पू. में 'लाइसियम' नामक संस्था की स्थापना उपर्यक्त उद्धरणों एवं दृष्टांतों से यह स्पष्ट प्रतीत की जिसे दर्शन के इतिहास में भ्रमणशील संस्था के नाम से होता है कि अरस्त को एकांतवादी दृष्टिकोण. ऐकांतिक जाना जाता है। चूंकि इस संस्था में वे भ्रमण करते हुए विचार एवं एकवादी तत्त्व चिंतन कभी प्रिय नहीं था। इसका विद्यार्थियों को शिक्षा देते थे, अतः इसे 'पेरिपेटेटिक' मतलब यह नहीं निकालना चाहिए कि वे जैन के अनेकांत (भ्रमणशील) संस्था के रूप में मान्यता मिली थी। अरस्तू सिद्धांत से प्रभावित थे। अपनी संस्था के माध्यम से दार्शनिकों की एक ऐसी फौज टापि यह सच है कि उन्होंने एकांत कोन स्वीकार खड़ी करना चाहते थे जो दर्शन के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित कर अपने चिंतन में अनेकांत को बढ़ावा दिया है। ऐसा करते हए दर्शन के मर्म को जन-जन तक पहुंचा सके। इस उन्होंने अपने ज्ञान एवं विवेक से किया है। दृष्टि से उन्होंने अपने गुरु प्लेटो के दार्शनिक सिद्धांतों पर प्रश्न उठता है कि अनेकांत क्या है? अरस्तू का कैंची चलाने में कोई हिचक नहीं दिखाई। तत्त्व एवं द्रव्य के अनेकांतवादी चिंतन क्या है? दर्शन के विद्यार्थी यह जानते हैं संदर्भ में प्लेटो के एकांतवादी विचारों को भी उन्होंने नहीं। कि अनेकांतवाद जैन दर्शन का आधारभूत सिद्धांत है। इस बख्शा। दर्शन में वे स्वतंत्र चिंतन के पक्षधर थे। इसी स्वतंत्र सिद्धांत के अनुसार 'अनंतधर्माम् वस्तु' अर्थात् वस्तु एक चिंतन के कारण दर्शन जगत में उन्होंने एक क्रांति धर्मा न होकर अनंत धर्मा है। समयसार आत्मख्याति टीका की-जिसे समन्वय की क्रांति कहा जाता है। प्रो. गौम्पर्ज में आचार्य अमतचन्द ने अनेकांत को परिभाषित करते हुए के अनुसार अरस्तू ने प्लेटो के दर्शन के एकांतवादी चिंतन लिखा है—'यदेव तत तदेव अतत. यदेवेकं तदेवानेकम, का खंडन करने में कोई संकोच नहीं किया। प्लेटो के यदेवसत तदेवासत. यदेव नित्यं तदेवानित्यम. इत्येक वस्त सामान्य-विशेष, नित्य-अनित्य, द्रव्य-सार के भेद अरस्तू वस्तुत्वनिष्पादक परस्पर विरुद्ध शक्तिद्वय को मान्य नहीं थे।' अरस्तू ने एकांत विचार की दृष्टि से प्रकाशनमनेकान्तः। 1 1111111111111 स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष .87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy