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________________ सहयोग की भावना को अनेकांत की व्यावहारिक परंपरा के शरीर के अंदर का तापमान सदैव एक जैसा ही रहता है। रूप में देखा जा सकता है। जब बाहर तापमान बहुत कम होता है तो पेशियां तथा लीवर गति-सभी जीवित प्राणी और वनस्पतियां गति की कोशिकाएं अधिक मात्रा में ऊष्मा का उत्पादन करती हैं। करते हैं. परंत सब में उसका स्वरूप अलग-अलग होता है। रक्त उस ऊष्मा को पूरे शरीर में फैलाने का माध्यम बनता मानव स्वच्छंद रूप से गति करने वाले प्राणियों में से एक है। है। इस क्रम में जब तापमान बढ़ने लगता है और वह नियत गति करने के लिए पेशियों का कार्य करना. शरीर की सीमा से ऊपर जाने लगता है तो इन्हीं अंगों की कतिपय अस्थि-संधियों में निरंतरता बने रहना, इन सभी कार्यों में कोशिकाएं उसका विरोध शुरू कर देती हैं और ऊष्मा का निरंतर आवश्यक निर्देश मिलते रहना आवश्यक होता है। उत्पादन रुक जाता है। इसके ठीक विपरीत जब बाहर पेशियां फैलती-सिकुड़ती हैं, अस्थियां उन्हें फैलने-सिकड़ने तापमान अपेक्षाकृत अत्यधिक न्यून होता है तब एक तो का आधार देती हैं, रक्त प्रवाह से उन्हें समर्थन और सहयोग ऊष्मा का उत्पादन अत्यधिक कम कर दिया जाता है, दूसरे मिलता है, तंत्रिकाएं उन्हें आवश्यक निर्देश देती रहती हैं। पसीना निकालकर एवं ऊष्मा के फैलाव की दिशा बदलकर आदेश कभी काम करने का होता है और कभी काम बंद करने आंतरिक तापमान को नियंत्रित किया जाता है। यहां यह का। इन दो विरोधी आदेशों के बीच संतुलन बनाकर गति की उल्लेखनीय है कि एक ही समय में दोनों विरोधी प्रक्रियाएं प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और जीवन चलाने के लिए सक्रिय रहती हैं, फिर भी इनके बीच संतुलन बना रहता है, आवश्यक सामग्री तथा साधन जुटाए जाते हैं। गतिहीन शरीर वे दोनों एक-दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करतीं। को रुग्ण कहा जाता है। वास्तव में जीवन के रहने तक शरीर जब कभी ऐसी अप्रिय स्थिति उत्पन्न होती है तो मस्तिष्क पूरी तरह गतिहीन हो ही नहीं सकता। यदि बाह्यगति को रोक के द्वारा उसका परिमार्जन किया जाता है। यह एक शुद्ध भी दिया जाए तो भी श्वसन के क्रम में फेफड़ों की गति तथा अनैकांतिक व्यवस्था का उदाहरण है। रक्त प्रवाह के लिए हृदय-गति को भला कैसे रोका जा इसी प्रकार की एक अन्य अनैकांतिक व्यवस्था का सकता है ? इस प्रकार बाह्य तथा आंतरिक गतियों के बीच उदाहरण शरीर में ग्लूकोज (शुगर) के स्तर को लेकर देखा हर हाल में संतुलन बनाए रखना अपेक्षित होता है। हर जा सकता है। भोजन पाचन के बाद ग्लूकोज के रूप में प्रतिरोध के बावजूद भी शरीर ऐसा करता है। अनेकांत का परिवर्तित होता है और रक्त में अवशोषित हो जाता है, इससे बेहतर उदाहरण भला क्या हो सकता है? जिससे रक्त में एकाएक शुगर की मात्रा बढ़ जाती है। शरीर प्रतिक्रिया और साम्यावस्था सामाजिक प्राणी होने की वे तमाम कोशिकाएं और ऊतक इसका विरोध करते हैं, के कारण मानव का संबंध स्वयं से, पर्यावरण से, अन्य क्योंकि, उन्हें बढ़ी हुई शुगर के कारण परेशानी होती है। जंतुओं से तथा सहजीवी मानवों से अविच्छिन्न होता है। तब इन्सुलिन-हार्मोन को अग्नाशय से अलग हटा दिया एक तरफ वह स्वयं से आवश्यकतानुरूप व्यवहार करता है, जाता है और रक्त में शुगर की सामान्य मात्रा ही शेष रह दूसरी तरफ ब्रह्मांड के अन्य सभी घटकों से निरंतर संपर्क जाती है। बनाकर रखता है। ऐसा करना केवल आवश्यकता नहीं मानव शरीर के अंदर रचना और क्रिया के दृष्टिकोण उसकी मजबूरी है, इस क्रम में अनेकानेक उद्दीपन देता और से देखा जाए तो तंत्रिकातंत्र की रचना और इसकी लेता है। परिणामस्वरूप उसकी शरीर की संरचना में एवं क्रियाविधि अनैकांतिक व्यवस्था का सर्वोत्कष्ट उदाहरण है। क्रिया में इस तरह के परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों तंत्रिकातंत्र की इकाइयां जिन्हें 'न्यूरान' कहते हैं-रचना में के चलते शरीर के विभिन्न तंत्र कभी अनुकूल तो कभी भी भिन्न होती हैं और क्रिया में भी। एक समह शरीर के प्रतिकल परिस्थितियों का सामना करते हैं। ऐसे में एक अंग अंगों की सक्रियता बढ़ाता है जबकि दूसरा उनकी सक्रियता या अवयव दूसरे की सहायता भी करता है और विरोध भी। घटाता है। तंत्रिकाएं 'नर्वज' भी विरोधी गुणों वाली होती हैं। परंतु इस सहयोग और विरोध के बीच एक सामंजस्य सदैव एक वे होती हैं जो उत्तेजना उत्पन्न करती हैं. दूसरी वे होती बना रहता है जो अपने-आप में अनेकातिक व्यवस्था का हैं जो उत्तेजना कम करने के लिए काम करती हैं। तंत्रिकातंत्र द्योतक है। का ही एक भाग होता है जिसे स्वायतशाषी तंत्रिकातंत्र के हममें से अनेक इस तथ्य से परिचित होंगे कि मनुष्य नाम से जाना जाता है। इसके द्वारा शरीर के आंतरिक एक समतापी जीव है अर्थात् बाह्य वातावरण कैसा भी हो महत्त्वपूर्ण अंगों की गतिविधियों को नियंत्रित और नियोजित स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 | जैन भारती अनेकांत विशेष.85 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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