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________________ विभिन्न गुणों अथवा पक्षों और उनके पारस्परिक सामंजस्य सामाजिक नैतिकता से जुड़ा एक दूसरा महत्त्वपूर्ण की समझ पर ही आधारित होती है और यह समझ ही प्रश्न है वैयक्तिक कल्याण और सामाजिक कल्याण में प्रबंधशास्त्र का प्राण है। दूसरे शब्दों में कहें तो अनेकांत किसे प्रमुख माना जाए? इस समस्या के समाधान के लिए दृष्टि के आधार पर ही संपूर्ण प्रबंधशास्त्र अवस्थित है। भी हमें अनेकांत दृष्टि को ही आधार बनाकर चलना होगा। विविध पक्षों के अस्तित्व की स्वीकृति के साथ उनके यदि व्यक्ति और समाज परस्पर सापेक्ष हैं, व्यक्ति के हित पारस्परिक सामंजस्य की संभावना को देख पाना में समाज का हित है और समाज के हित में व्यक्ति का प्रबंधशास्त्र की सर्वोत्कृष्टता का आधार है। हित समाया है तो इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। जो लोग वैयक्तिक हितों और सामाजिक हितों को परस्पर समाजशास्त्र और अनेकांतवाद निरपेक्ष मानते हैं, वे वस्तुतः व्यक्ति और समाज के समाजशास्त्र के क्षेत्र में सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या पारस्परिक संबंधों से अनभिज्ञ हैं। वैयक्तिक कल्याण और व्यक्ति और समाज के पारस्परिक संबंधों को सम्यक् प्रकार सामाजिक कल्याण परस्पर भिन्न प्रतीत होते हुए भी एकसे समझ पाना या समझा पाना ही है। व्यक्ति के बिना दूसरे से पृथक नहीं हैं। हमें यह मानना होगा कि समाज के समाज और समाज के बिना व्यक्ति (सभ्य व्यक्ति) का हित में ही व्यक्ति का हित है और व्यक्ति के हित में अस्तित्व संभव नहीं है। जहां एक ओर व्यक्तियों के आधार समाज का हित। अतः एकांत स्वार्थपरतावाद और एकांत पर ही समाज खड़ा होता है, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति के परोपकारवाद दोनों ही संगत सिद्धांत नहीं हो सकते। न तो व्यक्तित्व का निर्माण समाजरूपी कार्यशाला में ही संपन्न वैयक्तिक हितों की उपेक्षा की जा सकती है, न ही होता है। जो विचारधाराएं व्यक्ति और समाज को एक सामाजिक हितों की। अनेकांत दृष्टि हमें यही बताती है कि दूसरे से निरपेक्ष मानकर चलती हैं वे न तो सही रूप में वैयक्तिक कल्याण में सामाजिक कल्याण और सामाजिक व्यक्ति को समझ पाती हैं और न ही समाज को। व्यक्ति कल्याण में वैयक्तिक कल्याण अनुस्यूत है। दूसरे शब्दों में और समाज-दोनों का अस्तित्व परस्पर सापेक्ष है। इस वे परस्पर सापेक्ष हैं। सापेक्षता को समझे बिना न तो व्यक्ति को ही समझा जा सकता है और न समाज को। समाजशास्त्र के क्षेत्र में पारिवारिक जीवन में स्याद्वाद दृष्टि का उपयोग अनेकांत दृष्टि व्यक्ति और समाज के इस सापेक्षिक संबंध कौटुंबिक क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर को देखने का प्रयास करती है। व्यक्ति और समाज एक- कुटुंबों में और कुटुंब के सदस्यों में संघर्ष को टालकर दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं। यह समझ ही समाजशास्त्र के शांतिपूर्ण वातावरण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। सभी सिद्धांतों का मूलभूत आधार है। सामाजिक सुधार के सामान्यतया पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केंद्र होते जो भी कार्यक्रम हैं उनका आवश्यक अंग व्यक्ति सुधारना हैं। पिता-पुत्र तथा सास-बहू। इन दोनों विवादों में मूल भी है। न तो सामाजिक सुधार के बिना व्यक्ति सुधार संभव कारण दोनों का दृष्टिभेद है। पिता जिस परिवेश में बड़ा है न व्यक्ति सुधार के बिना सामाजिक सुधार। वस्तुतः हुआ, उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना व्यक्ति और समाज में आंगिकता का संबंध है। व्यक्ति में चाहता है। पिता की दृष्टि अनुभवप्रधान होती है, जबकि समाज और समाज में व्यक्ति इस प्रकार अनुस्यूत हैं कि पुत्र की दृष्टि तर्कप्रधान। एक प्राचीन संस्कारों से ग्रसित उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। व्यक्ति होता है तो दूसरा उन्हें समाप्त कर देना चाहता है। यही और समाज की इस सापेक्षिकता को समझना समाजशास्त्र स्थिति सास-बहू में होती है। सास यह अपेक्षा करती है के लिए आवश्यक है और यह समझ अनेकांत दृष्टि के कि बहू ऐसा जीवन जीए जैसा उसने स्वयं बहू के रूप में विकास से ही संभव है, क्योंकि वह एकत्व में अनेकत्व जीया था, जबकि बहू अपने युग के अनुरूप और अपने अथवा एकता में विभिन्नता तथा विभिन्नता में एकता का मातृ पक्ष के संस्कारों से प्रभावित जीवन जीना चाहती है। दर्शन करती है, उसके लिए एकत्व और पृथकत्व दोनों का मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा यह भी होती है कि वह ही समान महत्त्व है। वह यह मानकर चलती है कि व्यक्ति उतना ही स्वतंत्र जीवन जीए, जैसा वह अपने माता-पिता और समाज परस्पर सापेक्ष हैं और एक के अभाव में दूसरे के पास जीती थी। इसके विपरीत श्वसुर पक्ष उससे एक की कोई सत्ता नहीं है। अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है। यही सब विवाद स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती ___72. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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