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________________ की बात करने का कोई अर्थ ही नहीं हो सकता जो कि उन दूसरे तरीकों से भी हटाया जा सकता है। यही नहीं, स्याद्वाद विषयों के संदर्भ में होती है जो देश-काल में अनिवार्य रूप के सिद्धांत का अर्थ सार्थक तभी हो सकता है जब उसको से अवस्थित माने जाते हैं। गणित के सिद्धांत कुछ इसी इस मान्यता के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए कि जिन वाक्यों के प्रकार के विषय हैं। 'दो और दो चार' होते हैं, इसके बारे में साथ यह नहीं लगा होता, वे अपने-आप में अपूर्ण हैं और क्या अनेकांतता होगी? क्या इसके विषय में भी कोई अंततोगत्वा भ्रामक हैं। वास्तव में देखा जाए तो वे वाक्य हैं अनेकांतवादी दार्शनिक यह कहेगा कि यह 'सत्य' भी है और ही नहीं, केवल वाक्य का आभास मात्र हैं। 'असत्य' भी? यह ठीक है कि आज के गणितीय दर्शन के स्याद्वाद को सप्तभंगी रूप में देखना जैन दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में कछ लोग ऐसा कहते है कि दो और दो चार' परंपरा में सर्वमान्य है. परंत जहां एक ओर तो यह उस की सत्यता किन्हीं पूर्व मान्यताओं पर आधारित है। लेकिन अनैकांतिकता को सीमाबद्ध करने की चेष्टा है. वहीं दूसरी यह जा बात कहा जा रहा ह इसस काइ खास फक पड़न ओर 'अवक्तव्य' की बात करने से उस अनैकांतिकता पर वाला नहीं है, क्योंकि यह आसानी से कहा जा सकता है कि स्वयं ही संदेह का चिह्न लगाती है। अनैकांतिकता को यदि कोई इन पूर्व मान्यताओं को मानता है तो उसे अनिवार्य सीमाबद्ध करने का अर्थ यही है कि वास्तव में अनैकांतिकता रूप से यह मानना पड़ेगा कि दो और दो चार होते हैं। तर्क- नहीं है। अगर संभावना 'एक' है तो वह ऐकांतिक है और यदि शास्त्र का मूल आधार यही है कि यदि आप यह मानते हैं, किसी दूसरे के 'साथ' एकजुट है तो अनैकांतिक है, यह तभी तो आपको यह भी मानना पड़ेगा। इसमें किसी प्रकार की माना जा सकता है जब किन्हीं दो चीजों के एक साथ होने को है अनैकांतिकता की संभावना दिखाई नहीं देती। ऐकांतिक न कहा जाए। कमरे में कुर्सी एक हो, तो उससे वह कहने का अर्थ यह है कि ज्ञान का विषय चाहे देश- कोई ऐकांतिक नहीं हो जाती, उसी तरह जैसे अगर कई काल में अनिवार्य रूप से अवस्थित हो या उनसे स्वतंत्र, कुर्सियां एक साथ होती हैं तो वे अनैकांतिक नहीं हो जातीं। उसे सदैव इस प्रकार वर्णित किया शायद, 'अनैकांतिक' कहने का जा सकता है कि उसमें अनेकांतता अर्थ यह होता है कि वस्तु के अनेक की संभावना ही न रहे। अनैकांतिकता की बात भेद को प्रधान पर्याय होते हैं। परंतु इससे उस यदि यह सच है तो मानकर चलती है और 'भेद' सर्वत्र 'एक' की 'एकता' पर आंच कैसे व्याप्त है। इस भेद' को भारतीय अनैकांतिकता की बात उस वाक्य आती है? अगर 'एक' है ही नहीं, दार्शनिक परंपरा में केवल 'अद्वैत तो अनैकांतिकता की बात करना की असंपूर्णता पर ही निर्भर होगी वेदांत' ने ही पूर्ण रूप से अस्वीकार व्यर्थ है; और अगर एक है, तो भी। जो किसी सत्य का वर्णन करता किया है और अगर ऐसा है तो है, स्वयं उस तथ्य या सत् पर 'अवक्तव्य' की बात करना अनैकांतिकता अनेक रूपों में उन सब नहीं, जिसका वर्णन किया जा रहा दर्शनों में मिलनी चाहिए जो अद्वैत तो और भी आश्चर्यजनक है। है। एक तरह से यह बात स्वयं दृष्टि को मूलतः अस्वीकार करते हैं। अगर जैन दार्शनिक वास्तव में स्याद्वाद के सिद्धांत में परिलक्षित अनैकांतिकता का जो रूप जैन अनैकांतिकता को मानते हैं तो दार्शनिक परंपरा में प्रस्फुटित हुआ है, होती है। 'स्याद्' को जोड़ने से, 'अस्ति-नास्ति' को एक साथ कहने में क्या कठिनाई प्रतीत होती वह उसका ही एक रूप है। वाक्य के पहले 'स्याद्' लगाने से, अनैकांतिकता पर चिंतन, गहन है? कठिनाई का प्रतीत होना ही अगर वाक्य की अनैकांतिकता चिंतन तब तक नहीं हो सकता जब इस बात का सूचक है कि 'अस्तिसमाप्त हो जाती है, तो इससे तक स्वयं अनैकांतिकता में अनेकता नास्ति ' को एक ही संदर्भ में एक क्या यह सिद्ध नहीं होता कि की संभावना को स्वीकार नहीं किया साथ कहने में कुछ दोष है; पर इस 'दोष' उस वाक्य का था, जिसके जाए। दोष का परिहार 'अवक्तव्य' कहने द्वारा उस तथ्य का वर्णन किया जा - से नहीं किया जा सकता। यही रहा था। जैन दार्शनिक 'स्याद्' नहीं, 'अवक्तव्य' को फिर लगाकर ही अनैकांतिकता से छुट्टी पाना चाहते हैं। लेकिन 'अस्ति-नास्ति' से जोड़ने पर उनका अलग अपना कोई अर्थ उन्होंने यह नहीं सोचा कि वाक्य की अनैकांतिकता को और ही नहीं रहता। HEALTH स्वर्ण जयंती वर्ष 46. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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