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________________ (1.164.39) के 'यस्तन्न वेद किम् ऋचा करिष्यति' की दर्शन 'एक ही अग्नि' या 'एक ही वायु' न कहकर इतना परंपरा तो वस्तुतः गीता तक चली आई है—'वेदवादरताः भर कहेगा कि अग्नि एवं वायु के अनेक रूप हैं। इन दोनों पार्थ' (गीता, 2.42) में जिसका संकेत-भर है उसे आगे के उपनिषद-मंत्रों के अंत में कहा गया है कि संपूर्ण भूतों का श्लोक में अधिक तीखे ढंग से अभिव्यक्त किया गया है- एक ही अंतरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके उनसे बाहर भी है। यहां सर्वभूतारात्मा का वस्तुतः ब्रह्म के तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।। रूप में प्रतिपादन किया गया है जिसे अनेकांत दर्शन में गीता, 2.46 स्वीकार नहीं किया जाता। अनेकांत दर्शन आत्मा और कर्म हां, यह अवश्य ध्यातव्य है कि गीता (8.11) में को स्वीकार करता है, परमात्मा, वर्णाश्रम और वेद को 'यदक्षरं वेदविदो वदन्ति' भी आया है. संभवतः जिसके नहीं। 'अनुत्तर योगी' में वीरेन्द्रकुमार जैन ने वैशाली के कारण यह परंपरा आस्तिक मानी जाती रही है। पर क्या विद्रोही राजपुरुष तीर्थंकर महावीर को महर्षि रमण की तरह श्रमण परंपरा को नास्तिक कहना युक्तिसंगत है ? (द्रष्टव्य, 'मैं कौन हूं' के रूप में प्रस्तुत करते हुए यथार्थ ऊर्ध्वारोहण पी. टी. राजू, द फिलास्फिकल ट्रैडीशन्स आफ इंडिया, को 'कैवल्य के प्रभा-मंडल में प्रतिष्ठित किया फिर भी 1971, पृ. 93-94) पर राजू जैसे पंडितों की बात को जैन समाज ने इसे इसलिए स्वीकार नहीं किया कि इस कितना प्रामाणिक माना जाय जो वर्धमान महावीर को ही जैन प्रस्तुति से वैदिक परंपरा की पौराणिक गंध निःसृत होती है धर्म का प्रवर्तक मानते हैं! (वही, पृ. 94) और फिर (वीरेन्द्रकुमार जैन, अनुत्तर योगी, दो खंड, राधाकृष्ण, महावीर-पूर्व की जैन-परंपरा का भी उल्लेख करते हैं! 1974. 1993)। लेखक ने स्वयं स्वीकार किया भ्रांति उत्पन्न होती है आस्तिक और नास्तिक के रूद है—'सांप्रदायिक जैन अपने शास्त्रों की सीमित भाषा में अर्थ को प्रधानता देने से। पर तत्त्व-विचार के क्षेत्र में यह वर्णित किसी जैन महावीर को मेरी इस कृति में खोजेंगे, तो उचित नहीं प्रतीत होता। तत्त्व की दृष्टि से 'नास्तिको शायद उन्हें निराश होना पड़ेगा। (वही पहला भाग, पृ. वेदनिन्दकः' के स्थान पर 'नास्तिकः सत्यहिंसकः' कहना- 546) मानना युक्तिसंगत होगा (द्रष्टव्य : लेखक की 'अनुत्तर योगी' में प्रस्तुत तीर्थंकर को अनेकांत के 'ब्रह्मविज्ञानोपनिषद्', सव-सवा-सघ, वाराणसा, 1982, स्याद के रूप में न स्वीकार करना अनेकांत दर्शन की पृ. 11)। आचार्य देवेंद्र मुनि लिखते हैं कि 'साधारणतया अनेक-कोणीयता पर प्रश्न-चिह्न लगाना है जिसे सत् की स्याद्वाद को ही अनेकांतवाद कह दिया जाता है, किंतु सूक्ष्म अस्ति के अस्तित्व को नकारने के कारण स्वीकार नहीं दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है कि दोनों में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक संबंध है। . किया जा सकता। इस रूप में जब रूढ़ और अकादमिक दृष्टि एक हो जाती हैं तब अनेकांतात्मक वस्तु को भाषा द्वारा बिना सम्यक् मनन के सत्य ओझल हो जाता है और शेष रह प्रतिपादित करने वाला सिद्धांत स्याद्वाद यह कथन अनेक लोगों कहलाता है। इस प्रकार स्याद्वाद श्रुत है जाता है मात्र कंकाल। फिर अनेकांत दर्शन को नहीं रुचेगा कि और अनेकांत वस्तुगत तत्त्व है' (जैन का प्रयोजन क्या रह जाएगा? सार्थकता वैदिक अद्वैत में अनेकांत दर्शन, पृ. 232)। इन्होंने तो यहां तक कह और जैन अनेकांत में क्या रह जाएगी? अनेकांत दर्शन डाला है कि 'आइन्स्टीन का सापेक्ष- वैदिक अद्वैत अंतर्निहित संशयवाद या संदेहवाद नहीं है, पर यह सिद्धांत स्याद्वाद की विचारधारा का । हैं। इसी प्रकार से दुराग्रह या मूढ़ाग्रह भी नहीं है। पक्ष और अनुसरण करता है।' (वही, पृ. 237) वैदिक दृष्टि में श्रमण- प्रतिपक्ष के कथन में निहित सत्य की परख अनेकांत दर्शन की ऐसी व्याख्याओं दृष्ट कर्मकांड का निषेध की शक्ति से अनेकांत दर्शन का उद्भव से उपनिषद-निरूपित ब्रह्म से इसका भी विद्यमान है। और विकास हुआ है, रूढ़ या अकादमिक अंतर मिट-सा जाता है। कठोपनिषद पिष्टपेषण से नहीं। (2.2.9-10) में कहा गया है कि एक ही अग्नि भुवन में रूढ़ और अकादमिक अध्ययन के रूप में, अनेकांत प्रविष्ट होकर अनेक रूप ग्रहण करता है, एक ही वायु दर्शन के प्रसंग में; स्याद्, सप्तभंगी, निक्षेप, नय, ज्ञान, भुवन में प्रविष्ट होकर अनेक रूप ग्रहण करता है। अनेकांत प्रमाण आदि को लेकर जो विवेचन होता आया है, उनसे स्वर्ण जयंती वर्ष 40. अनेकांत विशेष | जैन भारती मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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