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________________ ध्यान इस ओर दें कि क्या सचमुच कोई वस्तु युगपत् साथ रह सकते हैं। ये तीनों स्थितियां वक्तव्य हो सकती हैं विरोधी धर्मों से युक्त हो सकती है, जो कि सुदृढ़ वस्तुवादी या अवक्तव्य हो सकती हैं और इस प्रकार सात भंग बन वाली व्याख्या से तालमेल खा सके? इस अर्थ में हमारी जाएंगे जो कि अवक्तव्य के पहले-पीछे तीन-तीन के जोड़ों स्याद्वाद की व्याख्या सुदृढ़ रूप से वस्तुवादी है। प्रश्न होता में रहेंगे। इस निबंध में जो दृष्टि हमने अपनाई है वह यह है है कि क्या कोई उसका शास्त्रीय आधार है। उत्तर यह है कि कि अवक्तव्य का अवसर तब होता है जब वस्तु में न 'P' शास्त्रीय आधार तो है, किंतु आश्चर्य की बात यह है कि वह धर्म रहे न 'अ-P' धर्म रहे। इसका यह अर्थ होगा कि जैन सीधे-सीधे कुछ नहीं कहता है। और जब जैन दार्शनिकों पर मत के लिए अविरोध का नियम भी उतना ही अमान्य है असंगतता का आरोप लगाया जाता है तो वे अनेक टेढ़े-मेढ़े जितना तृतीय विकल्पाभाव का नियम। इसकी पुष्टि तर्क देकर उनका उत्तर देते हैं। इस कारण अनेक व्यक्तियों सप्तभंगी तरंगिणी के आधार पर मैं पहले ही कर चुका हूं। का कहना है कि जैन अनेकांतवाद सुदृढ़ रूप में उस अर्थ में यद्यपि बी.के. मतिलाल इससे सहमत नहीं हैं। वस्तुवादी नहीं है जो अर्थ हम वस्तुवाद का समझते हैं। (तुलनीय—'जैन दर्शन में यह संभावना के रूप में भी यदि ऐसा है तो स्याद्वाद की हमारी व्याख्या सुदृढ़ वस्तुवादी स्वीकार नहीं किया गया है कि पदार्थ न 'A' है और न 'अआधार पर टिकी होने के कारण निराधार सिद्ध हो जाती है, A-Central Philosophy of Jainism, P. 49) किंतु मेरा विचार यह है कि जैन अनेकांतवाद मूल रूप से यदि हम इस तर्कशास्त्रीय बिंद की उपेक्षा भी करदें सदढ़ रूप से वस्तुवादी है और जैन दार्शनिक विरोध- तो भी हमें एक और गंभीर समस्या का समाधान खोजना सहिष्णु तर्कशास्त्र (inconsistency tolerant logic) होगा जैसा कि मतिलाल ने कहा है-संजय, नागार्जुन विकसित नहीं कर सकने के कारण यह नहीं समझ पाए कि आदि बौद्ध दार्शनिक ततीय विकल्प के सिद्धांत के विरुद्ध जैन दर्शन की दृढ़ वस्तुवादी प्रतिबद्धता के साथ 'घटः अस्ति जाते हैं और जैन अविरोध के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं. च नास्ति च' का तालमेल कैसे बिठा पाएं। अतः वे अनेक परंत यह पार्थक्य जैन मत और बौद्ध मत के बीच भेद को प्रकार के विकल्पों के बीच डोलायमान हैं। उदाहरणतः स्पष्ट करता है तो इसका यह अर्थ हुआ कि अविरोध के हरिभद्र के षड्दर्शन समुच्चय (पृ. 204,223) के 55वें नियम का उल्लंघन एवं तृतीय विकल्पाभाव के नियम का श्लोक पर टीका करते समय गुणरत्न ने अनंतधर्मात्मकत्व उल्लंघन इन दोनों के बीच तार्किक निरपेक्षता विद्यमान के समर्थन में कम से कम चार भिन्न-भिन्न व्याख्याएं दी हैं है। इसके लिए हमें कोई दसरे तर्क-प्रस्थान का आधार लेना जिनमें सुदढ़ वस्तुवादी व्याख्या भी शामिल है। षड्दर्शन पडेगा, क्योंकि द्विपक्षीय तर्क-प्रस्थान के अंतर्गत तार्किक समुच्चय (पृ. 216) में यह कहा गया है कि घट में जितने नियम के रूप में देखा जाए तो नतीय विकल्पाभाव का परमाणु हैं उनकी संख्या अथवा घट जितने काल रहता है नियम और अविरोध का नियम एक ही सिक्के के दो पहल उतने काल के समयों की संख्या घट के स्वधर्म है। इसके हैं। इसके अतिरिक्त यदि मतिलाल का अनकरण करते हुए अनंतर स्वधर्म का यह लक्षण दिया है कि ग्राह्यस्य हम नागार्जन के मत को प्रसज्य-प्रतिषेध अर्थात निराधार स्वभावभेदे च ये स्वभावाः ते स्वधर्माः। यह व्याख्या सुदृढ़ निषेध का समर्थक मान लें अर्थात वे किसी भी प्रकार के वस्तुवाद के अनुकूल है। मतिलाल का यह मत है कि जैन अस्तित्व की प्राक-कल्पना किए बिना निषेध करते अविरोध के नियम का पालन नहीं करते, इससे भी यही हैं—ऐसा मानले. तो हमें यह मानना पडेगा कि वे ततीय सूचित होता है कि 'स्यात् घटः अस्ति च नास्ति च' का भंग विकल्पाभाव के नियम और अविरोध के नियम दोनों का सचमच वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों को मानता है। के.पी. ही उल्लंघन करते हैं. न कि केवल ततीय विकल्पाभाव के सिन्हा (1990 पृ. 9) इस संबंध में बहुत स्पष्ट है कि नियम का जैसी कि मतिलाल की मान्यता है। यहां पर अनेकांतवाद की दृढ़ वस्तुवादी व्याख्या ही सम्यक् है। वे मतिलाल कठिनाई में फंस गए हैं जिसका कि वे मश्किल से कहते हैं--'अनेकांतवाद के अनुसार वस्तु में अनेक धर्म है सामना कर पाते हैं। क्योंकि जे. एफ. स्टाल (1975 पृ. जो परस्पर विरोधी भी हैं।' ___38) ने उनके विरुद्ध समालोचना करते हुए कहा है यह मान लेने पर कि दृढ़ वस्तुवादी व्याख्या संभव कि–'वे (मतिलाल) स्पष्ट रूप से एक ओर अविरोध के भी है और शास्त्रसम्मत भी है, यह कहना होगा कि जैन मत नियम और दूसरी ओर तृतीय विकल्पाभाव के नियम तथा मानता है कि किसी वस्तु में 'P' या 'अ-P' अथवा दोनों एक दुहरे (अर्थात् निषेध का निषेध) निषेध के नियम के बीच भेद स्वर्ण जयंती वर्षummamm जैन भारती mmmmmmm मार्च-मई, 2002 34. अनेकांत विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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