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________________ अतः सामान्य मनुष्य अपने ज्ञान के सीमित होने के कारण आचार्य हेमचंद्र जैसे मौलिक जैन चिंतक 'सिद्ध हेम वस्तु को पूर्णतः नहीं जान सकता। अतः हम सामान्य मनुष्य शब्दानुशासन' में कहते हैंस्यादित्यव्ययं अनेकांतद्योतकं अधिक से अधिक एक विशेष दृष्टि अपनाकर एक समय में ततः स्याद्वादः अनेकांतवादः। पंडित एस.सी. न्यायाचार्य ने वस्तु के कतिपय धर्मों को ही जान सकते हैं। इसका यह अर्थ भी अपने जैन संबंधी ग्रंथ (पृ. 5) में इसी मत का समर्थन हुआ कि वस्तु का कोई भी ज्ञान जब भाषा में अभिव्यक्त किया है। वे बहुत बलपूर्वक कहते हैं कि स्याद्वाद और किया जाता है तो वह एक विशेष दृष्टिकोण से ही संबद्ध अनेकांतवाद एक ही वस्तु को अभिव्यक्त करने के दो प्रकार होता है। अनेकांतवाद और नयवाद के बीच यह तार्किक हैं, किंतु अन्य अनेक जैन पंडितों के आधिकारिक और मूल संबंध है। लेखों के समुचित उद्धरणों से यह सिद्ध किया जा सकता है स्पष्ट है कि यदि वस्तु के संबंध में हमारा कोई भी कि जो भेद हमने दिखाया है वह सही है। ज्ञान एक सीमित दृष्टि को लेकर होता है, वह वस्तु के हमने जो सत्तापरक तर्कपरक और ज्ञानपरक... केवल किसी धर्म-विशेष के संबंध में ही है तो यह कहना विविध विभाग किया है उसके समर्थन में कुछ प्रमाण मिथ्या होगा कि वस्तु केवल उसी धर्म-विशेष से जुड़ी है। विचारणीय हैं। कुछ उद्धरण नीचे दिए जाते हैंस्वयं जैन इसे स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण देते (क) एकत्र वस्तुनि एकैकधर्मपर्यानुयोगवशादविरोधेन हैं—चार अंधे व्यक्ति हाथी को देखने गए। उनमें से प्रत्येक व्यास्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया छू कर हाथी को जानता है, किंतु वह हाथी के शरीर के एक स्यात्काराङ्कितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभंगीति। विशिष्ट, किंतु भिन्न-भाग को छूता है। जो टांगों को छूता है वह कहता है कि हाथी स्तंभ की तरह है। जो पूंछ को छूता (प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार) है वह कहता है कि हाथी रस्सी की तरह है। जो शरीर को (ख) एकस्मिन् वस्तुनि एकैकधर्मपर्यनुयोगवशात् छता है वह कहता है कि हाथी दीवार की तरह है और इस अविरोधेन व्यास्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः प्रकार वे परस्पर विवाद प्रारंभ कर देते हैं कि हाथी वस्ततः कल्पनया स्यात्काराङ्कित सप्तधा वाकप्रयोगः सप्तभंगी। कैसा है? इन व्यक्तियों में प्रत्येक का वक्तव्य अंशतः सत्य (जैनतर्कभाषा) है। किंतु उस वक्तव्य को ऐकांतिक रूप से यह रूप दे देना (ग) स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात किंवत्तचिदविधिः कि हाथी केवल स्तंभ के समान है और अन्य किसी प्रकार सप्तभंगनयापेक्षो हेयादेयोविशेषकः इति । का नहीं है, अर्थात् वक्तव्य को निरपेक्ष रूप में सत्य मान (आप्तमीमांसा) लेना मूलतः सत्य को मिथ्या बना देना है। वक्तव्य की (घ) स्याद्वादोऽर्थप्रकरणादिनां घटादिशब्दार्थविशेषसत्यता को सुरक्षित रखने के लिए प्रत्येक वक्तव्य को स्थापना हेतूनामानुकूलः कुतः? सर्वथा एकान्तत्यागात्, तेषां सापेक्ष रूप में ही प्रस्तुत करना होगा। अर्थात् उन वक्तव्यों को सशर्त ही कहा जाना चाहिए था। जैनों के अनुसार यह अर्थप्रकरणादिनां प्रतिकूलस्य एकान्तस्य त्यागात्। सापेक्षता प्रत्येक वाक्य के पहले 'स्याद्' अव्यय लगाकर (आप्तमीमांसा वृत्तिः) प्रकट की जा सकती है। अतः यह कहने के स्थान पर कि (च) कथंचिदित्यादि किंवृत्तचिदविधिः स्याद्वाद 'गजः स्तम्भवत् एव', हमें कहना चाहिए—'स्याद् गजः आपरपयायः सोऽयमनेकान्तं अभिप्रेत्य सप्तभंगनयापेक्ष स्तम्भवत् एव'। । स्वभावपरभावाभ्यां सदसदादि व्यावस्थां प्रतिपादयतीति । अब तक यह स्पष्ट हो गया होगा कि अनेकांतवाद से (प्रमाण संग्रह) प्रारंभ करके हम नयवाद के माध्यम से तर्क द्वारा स्याद्वाद (छ) स्यात् कथंचित् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया तक पहुंच जाते हैं। यह भी स्पष्ट है कि स्याद्वाद इत्यर्थः। अभिव्यक्ति की प्रक्रिया से जुड़ा होने के कारण भाषात्मक (जैनतर्कभाषा) अभिव्यक्ति से संबद्ध है। (ज) प्रमाणपरिच्छिन्नस्य अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुना मैंने जिस प्रकार रखा है, उससे अनेकांतवाद, एकदेशग्राहिणः तदितरांश अप्रतिक्षेपिनो अध्यावसायविशेषः स्याद्वाद और नयवाद का परस्पर भेद बिल्कुल स्पष्ट है नयः। और उनका पारस्परिक तार्किक संबंध भी स्पष्ट है। (प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार) MERRIER m स्वर्ण जयंती वर्ष 28. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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