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________________ एक ही है। जहां तक 'क्रमभावि ज्ञान' का संबंध है, इसका है। इसकी अवास्तवता इस बात में है कि यदि हम यह माने कोई अर्थ ही नहीं बनता, क्योंकि सप्तभंगी के सातों भंग ज्ञान कि 'यह घट है' कथन कुछ अपेक्षाओं के अधीन है तो शेष की अक्रमकता को पूर्वगृहीत करके ही संभव हो सकते हैं। अपेक्षाएं इसके कथन करने के साथ ही इसमें अपोहात्मक रूप स्यावाद में स्यात् शब्द 'किसी अपेक्षा से' का वाचक है। अब से निहित हो जाती हैं, प्रथम दो और स्यादात्मक वाक्य उनका कोई भी कथनात्मक सापेक्षता किसी ज्ञानात्मक समग्रता को केवल प्रकटीकरण करते हैं। तृतीय अवक्तव्य का भंग पृथकपूर्वगृहीत करके ही संभव हो सकती है। उदाहरणतः 'स्यात् पृथक कथित भंगों का युगपद कथन है। किंतु यह युगपद् कथन घट है' इस वाक्य में यह कथन है कि इस देश और इस काल वास्तव में अकथित रूप से प्रथम दोनों भंगों में ही रहता है में कुछ भी ऐसा नहीं है जो अघट है। इस प्रकार 'यह घट है' अथवा कहें प्रथम दो भंग इस तीसरे भंग के आंशिक कथन इस कथन में 'यह' अघट नहीं है और 'वह' अघट भी हो मात्र हैं, पूरा कथन वही है जिसे जैन अवक्तव्य कहते हैं। किंतु सकता है और घट भी, यह पूर्वगृहीत रूप से निहित है यद्यपि इसे छोड़ते हुए, क्योंकि यहां यह बात अवांतर है, यहां यह इस कथन में इसका कथन नहीं हो रहा है। किंतु 'स्यात् यह देखना महत्त्वपूर्ण है कि स्याद्वाद का संबंध हमारे ज्ञान की घट है' में इस अकथित पूर्वगृहीत पक्ष का वक्ता को ज्ञान है अनिवार्य सीमितता के स्वीकार से और इस प्रकार और वह इसकी अपेक्षा से ही इस वाक्य को स्यात्पूर्वक कह अनाग्रहभाव और विनम्रता से नहीं है बल्कि वस्तु-स्वरूप रहा है, यह संकेत किया गया है। इस प्रकार यह वैसा ही विषयक निश्चित और आग्रही दृष्टि और भाषा की वाचकता वाक्य है जैसा 'यह दाईं भुजा है' वाक्य है, जिसमें यह के स्वरूप-विषयक आग्रही दृष्टि से है। ये दोनों दृष्टियां जैन पूर्वगृहीत है कि कहने वाला यह वाक्य इस अपेक्षा को ध्यान दर्शन की अपनी व्यवस्था के अंतर्गत कहां तक समीचीनमें रखकर ही बोल रहा है कि एक भुजा ऐसी है जो बाईं है। असमीचीन हैं—यह एक अलग प्रश्न है जिस पर हमने अपने इसी प्रकार 'स्यात् घट है' कथन में यह भी पूर्वगृहीत है कि ऊपर उल्लिखित लेख में विस्तार से विचार किया है। किंतु 'यह जो है, वह घट नहीं होकर कुछ और भी हो सकता था, यहां अवांतरतः यह पुनः द्रष्टव्य है कि स्याद्वाद के कथनइस प्रकार, 'यह जो घट है वह यहां इस समय तो है, अन्य विषयक होने, महाप्रज्ञजी के शब्दों में शैली-विषयक होने से समय या अन्यत्र यह नहीं भी हो सकता है।' इस प्रकार इसका कोई भी संबंध सांख्यिकी से नहीं है। यदि इसे स्याद्वाद ज्ञान-विषयक सिद्धांत नहीं ठहरता, कथन-विषयक तत्त्वमीमांसा-मूलक मानें तो भी इसे सांख्यिकीय नहीं कह सिद्धांत ही ठहरता है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है सकते, क्योंकि सांख्यिकी में घटनाओं में कारण-कार्य संबंध कि स्याद्वाद की सप्तभंगी में एक भंग अवक्तव्य का भी है, निर्धारित करने में असमर्थ रहने पर संख्यात्मक अनुपात का जिसका यह अर्थ है कि 'स्यात् है' में 'स्यात् नहीं है' यद्यपि कथन होता है और इस प्रकार सांख्यिकी केवल पूर्वगृहीत है और इस प्रकार वस्तु विशेष के सापेक्षतः होने ज्ञानमीमांसीय विधि-विषयक सिद्धांत है। और नहीं होने का ज्ञान युगपद रूप से होता है, किंतु 'युगपद पाद-टिप्पणियां: रूप से होने-न-होने' का कथन नहीं किया जा सकता। यद्यपि 1. माधवाचार्य सर्वदर्शन संग्रह, अनुवाद-उमाशंकर शर्मा, हमें यह बात समझ में नहीं आई कि अस्ति-अनस्ति का चौखंभा विद्याभवन, वाराणसी, पृ. 170 युगपद कथन अवक्तव्य कैसे है, क्योंकि यह कहा जा ही 2.सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त-हिस्ट्री ऑफ इंडियन फिलॉसाफी, सकता है कि 'प्रत्येक भौतिक वस्तु में अस्तित्व-अनस्तित्व मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, पृ. 175 सापेक्षतः युगपद रूप से रहते हैं।' जैनों का कहना है कि यह 3. आचार्य महाप्रज्ञ—'नय, अनेकांत और स्याद्वाद', जैन अनक्रमशः ही कहा जा सकता है, जबकि इसके कथ्य में भारती, वर्ष 49. अंक 4. अप्रैल, 2001. प. 10 यौगपद्य है, इसलिए यह कथ्य अवक्तव्य है। किंतु तब तो सभी कुछ अवक्तव्य हो जाएगा क्योंकि शब्द में अक्षरों का 5. सी. डी. ब्रॉड माइंड एंड इट्स प्लेस इन नेचर, अध्याय और वाक्य में शब्दों का अनुक्रम होता है जबकि शब्द और सेंसपर्सेप्शन एंड मैटर, रटलज एंड केगन पॉल, लंदन, वाक्य का वाच्य अक्रमिक होता है। शब्द-स्फोट और वाक्य- 1923 स्फोट का सिद्धांत इसी कठिनाई के अतिक्रमण के लिए है, 6. पी. एफ. स्ट्रॉसन दि इंडिविडुअल्स, यूनीवर्सिटी प्रेस, 'अवक्तव्य' कहे जाने वाले भंग की अवक्तव्यता इससे लंदन, 1959 अलग प्रकार की नहीं है, केवल इसके समान यह वास्तव नहीं 7. आचार्य महाप्रज्ञ, वही RRRRRRRHHHHHHHHHHHHHHHH: स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 26 • अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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