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________________ पैदा होगी। कर्ज आज एक प्रेरणा का स्रोत बन गया है, स्वतंत्रता, सामाजिक स्वतंत्रता, संवैधानिक स्वतंत्रताआर्थिक विकास का आधार बन गया है। स्वतंत्रता के अनेक विकल्प बन जाते हैं। इन सबकी आर्थिक विकास का एकांगी दष्टिकोण शारीरिक सापेक्षता के आधार पर व्याख्या की जा सकती है। जो स्वास्थ्य, मानसिक शांति, भावात्मक संतुलन और पर्यावरण स्वतत्र स्वतंत्रता परतंत्रता-सापेक्ष है, वह स्वतंत्रता है। परतंत्रता से विशुद्धि से निरपेक्ष बन गया। यह आर्थिक विकास का निरपेक्ष कोई भी स्वतंत्रता व्यक्ति और समाज के लिए एकांतवाद मानवीय मस्तिष्क को यांत्रिक बनाए हुए है। हर . कल्याणकारी नहीं हो सकती। मनुष्य के मन में आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने की अर्थ संग्रह के लिए पूरी स्वतंत्रता, उपभोग के लिए लालसा प्रबल हो उठी है। भी पूरी स्वतंत्रता-स्वतंत्रता का यह एकांतवाद आर्थिक __ अनेकांत की चार प्रमुख दृष्टियां हैं—द्रव्य, क्षेत्र, व विषमता और पर्यावरण को दूषित करने का हेतु बन रहा है। काल और भाव। किसी भी वस्तु का मूल्यांकन द्रव्य सापेक्ष, गरीबी, पर्यावरण प्रदूषण, संघर्ष, शस्त्र-निर्माण और क्षेत्र सापेक्ष, काल सापेक्ष और भाव सापेक्ष होना चाहिए। युद्ध ये सब एकांगी आग्रह की निष्पत्तियां हैं। निरपेक्ष मूल्यांकन अनेक उलझनें पैदा करता है। आर्थिक आध्यात्मिक और भौतिक-दोनों दृष्टियों के विकास के लिए शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति, समन्वय के बिना गरीबी की समस्या को कभी नहीं भावनात्मक संतुलन और पर्यावरण विशुद्धि गौण हो जाएं सुलझाया जा सकता। यह अर्थनीति की विडंबना है। उपभोग-संयम और भौतिक प्रयत्न दोनों के समन्वय जनसंख्या की वृद्धि के कारण उपायों के द्वारा के बिना पर्यावरण की समस्या को भी नहीं सुलझाया जा वस्तुओं की वृद्धि आवश्यक मानी गई। गरीबी को मिटाने के सकता। लिए भी आर्थिक विकास आवश्यक माना गया। रासायनिक आवेग-संतुलन और व्यवस्था—इन दोनों के छिड़काव खाद्यान्नों, साग-सब्जी और फलों को विषैला समन्वय के बिना संघर्ष को नहीं टाला जा सकता। बनाते हैं। मनुष्य जानते हुए भी विवश होकर उस जहर को स्वत्व की सीमा के आध्यात्मिक दृष्टिकोण और निगल जाता है। आर्थिक दौड़ ने उपभोग की जो आकांक्षा अनाक्रमण की मनोवृत्ति का विकास किए बिना शस्त्र-निर्माण पैदा की है, उससे गरीबी घटने के बजाय बढ़ रही है। के संकल्प को निरस्त नहीं किया जा सकता। आर्थिक संपदा कुछेक राष्ट्रों और कुछेक व्यक्तियों तक मानवीय दष्टिकोण को व्यापक बनाए बिना तथा अहं सिमट रही है। यह सब विकास के प्रति होने वाले एकांगी और लोभ को नियंत्रित किए बिना युद्ध की वत्ति को समाप्त दृष्टिकोण का परिणाम है। यदि अर्थनीति के केंद्र में मनुष्य नहीं किया जा सकता। हो और उसका उपयोग आर्थिक साम्राज्य के लिए न किया उक्त विरोधी समस्याओं में समन्वय स्थापित करना जाए तो एक संतुलित अर्थनीति की कल्पना की जा सकती सरल नहीं है। इनकी वक्रता को मिटाने के लिए भावात्मक है। मनुष्य-निरपेक्ष अर्थनीति की मकड़ी अपने ही जाल में संतुलन और व्यवस्था इन दोनों का समन्वय फंसी हुई है। एकांगी या निरपेक्ष दृष्टिकोण द्वारा कभी उसे आवश्यक है। बाहर नहीं निकाला जा सकता। अनेकांत के द्वारा विरोधी प्रतीत होने वाली घटनाओं भगवान महावीर ने उपभोग की सीमा का जो सूत्र में भी समन्वय स्थापित किया जा सकता है। वस्तु जगत में दिया था, उसकी विस्मृति आज की बड़ी समस्या है। पर्ण सामंजस्य और सह हा पूर्ण सामंजस्य और सह-अस्तित्व है। विरोधी की कल्पना अनेकांत के आलोक में उसे फिर देखने का प्रयत्न करें। हमारी बद्धि ने की है। उत्पाद और विनाश, जन्म और मृत्यु, स्वतंत्रता और परतंत्रता शाश्वत और अशाश्वत—ये सब साथ-साथ चलते हैं। स्वतंत्रता और परतंत्रता का प्रश्न भी विवाद से परे सुविधा की आकांक्षा और विलासिता की मनोवृत्ति नहीं है। एकांतवादी दृष्टिकोण के आधार पर उसकी की संतुष्टि करना बहुत कठिन है, इसलिए भौतिक विकास व्याख्या नहीं की जा सकती। भावात्मक अभिनिवेश वाला और आध्यात्मिक विकास में सामंजस्य स्थापित करना कोई भी व्यक्ति पूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकता। वैयक्तिक अनिवार्य है। 1111111111 स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 18. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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