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________________ बोध कथन अपराध और दंड तथा पांच प्रेरक प्रसंग मनि दुलहाज SSES एक व्यक्ति छोटा या बड़ा अपराध करता है, किंतु वह उतना वाक्पट है कि अपने अपराध को छिपाकर, दूसरे के सिर मद देता है। दसरा व्यक्ति अपने बचाव में सक्षम नहीं है। फिर भी वह अपने-आप को निर्दोष घोषित करने के लिए अनेक प्रयत्न करता है परंतु वह सफल नहीं होता। इसका कारण केवल यही नहीं कि अपराध करने वाला वाक्पट है, परंतु उसके साथ एक शक्ति काम करती है, जो अपनी नहीं है, अपने आश्रय की है, जिससे कि वह उस अपराध से घट जाता है, और दूसरा व्यक्ति अपराध नहीं करने पर भी दंडित होता है, क्योंकि उसका सहयोगी इतना प्रबल और ॥ शक्तिशाली नहीं है, तो इसका यह अर्थ हुआ कि अपराध को पोषण सहयोग से मिलता है। यदि सहयोम न हो तो अपराध अपनी भौत भर जाता है। वह पनप ही नहीं सकता। Samananews - गोथिला के नरेश नमि अभिनिष्क्रमण कर रहे परखा जाता है। वहां वह सत्य अंतिम सत्य नहीं रहता, थे। नगरी की सारी जनता शोकाकुल थी। आपेक्षिक बन जाता है। वहां उसकी कोई निश्चित नमि प्रव्रज्या-ग्रहण के लिए उपस्थित हुए। इन्द्र ब्राह्मण इयत्ता नहीं होती, अतः निष्कर्ष या परिणाम भी भिन्नका रूप बनाकर नमि के वैराग्य की परीक्षा करने हेतु भिन्न होते हैं। उपस्थित हुआ। जो व्यक्ति धर्म-संघ में है और यदि वह अपने इन्द्र ने कहा--"महाराज! आप प्रव्रजित हो रहे संघ की मर्यादाओं की अवहेलना या अस्वीकार करता हैं। इससे पूर्व क्या यह आपका कर्तव्य नहीं हो जाता है तो वह अपराधी समझा जाता है। राजनीति के क्षेत्र कि आप अपनी नगरी में सुरक्षा के समस्त साधनों को में. अपने-अपने गट के नियमों का अनादर या जुटाकर फिर अभिनिष्क्रमण करते?' . अस्वीकार अपराध माना जाता है और सामाजिक क्षेत्र राजर्षि नमि ने कहा-'ब्राह्मण! संसार का में समाज की पारस्परिक नीतियों की अवहेलना अपराध स्वरूप विचित्र-सा है। यहां बहुत बार मनुष्य 'मिथ्या- समझा जाता है। क्षेत्रों की भिन्नताओं के कारण दंड' का प्रयोग करते हैं। जो अपराधी होते हैं, वे छूट अपराधों के स्वरूप में भी भिन्नता आ जाती है। इसी जाते हैं और निरपराध व्यक्ति दंडित होते हैं। ऐसी प्रकार काल और व्यक्ति के आधार पर भी अपराध की स्थिति में सुरक्षा कैसी?' परिभाषा भिन्न-भिन्न होती है। यह आगमकालीन एक प्रसंग है। इसमें राजर्षि एक व्यक्ति छोटा या बड़ा अपराध करता है, नमि ने एक शाश्वत सत्य को अनावृत किया है। किंतु वह उतना वाक्पटु है कि अपने अपराध को अच्छाई और बुराई, अपराध और छिपाकर, दूसरे के सिर मढ़ देता है। दूसरा व्यक्ति पराध-ये सब आपेक्षिक तथ्य हैं। जहां अपेक्षा है, अपने बचाव में सक्षम नहीं है। फिर भी वह अपनेवहां व्यक्ति, क्षेत्र, काल और अपना मनोभाव उससे आप को निर्दोष घोषित करने के लिए अनेक प्रयत्न जुड़ जाते हैं। इस चतुर्विध संयोजन से एक सत्य को करता है परंतु वह सफल नहीं होता। इसका कारण स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 | जैन भारती अनेकांत विशेष . 147 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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