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________________ विपरीतपना या क्या-कुछ है या नहीं इस प्रकार के हैं—भिन्न नहीं हैं तो द्रव्य लक्षण में उन दोनों का निवेश अनध्यवसायपने का अभाव रहता है, इसीलिए इसी किसलिए किया गया है? इस प्रश्न का सूक्ष्मप्रज्ञता से भरा अखंडित चित्रण रूप प्रमाण ज्ञान को ही सम्यक् ज्ञान कहा हआ उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानन्द 'तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक' जाता है। अखंडित चित्रण बन जाने के पश्चात् धारा रूप में कहते हैंचित्रण वाले ज्ञान में पड़े हुए पृथक-पृथक भाव जो धारा गुणवद् द्रव्यमित्युक्तं सहानेकान्तसिद्धये। प्रवाही वचनों से पर से ग्रहण करने में आए हैं, नय ज्ञान तथा पर्यायवद् द्रव्यं क्रमानेकान्तसिद्धये।। कहलाता है। प्रमाण ज्ञान अनेकांत वस्तु के अनुरूप अखंड चित्रण होने के कारण अनेकांत है और नय ज्ञान उस अर्थात् सहानेकांत की सिद्धि के लिए तो गुणयुक्त को अनेकांत वस्तु के पृथक-पृथक अंशों के खंडित चित्रण होने द्रव्य कहा गया है और क्रमानेकांत के ज्ञान के लिए के कारण एकांगी या एकांत है। पर्याययुक्त को द्रव्य बतलाया गया है और इसलिए गुण सहानेकांत और क्रमानेकांत-अनेकांत के संदर्भ में एक तथा पर्याय दोनों का द्रव्य लक्षण में निवेश युक्त है। महत्त्वपूर्ण चर्चा का प्रारंभ आचार्य सिद्धसेन ने 'सन्मति आचार्य अकलंक ने 'अष्टशती' में अनेकांत को तर्क' में किया। जैन दर्शन में गुण और पर्याय युक्त को द्रव्य - परिभाषित करते हुए लिखा है—'सदसन्नित्यानित्यादिकहा गया है। इस पर शंका की गई कि 'गुण' संज्ञा तो सर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः। जैनेतरों की है, जैनों की नहीं है। जैनों के यहां तो द्रव्य और इस युग में वस्तुगत समस्याओं का निराकरण पर्याय रूप ही तत्त्व वर्णित किया गया है और इसीलिए अनेकांतवाद के द्वारा किया गया। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दो ही नयों का उपदेश दिया आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा है-अनेकांत ने तत्त्व गया है। यदि गुण भी कोई वस्तु है तो तद्विषयक तीसरा की व्याख्या की। तत्त्व के दो पहल हैं। एक है द्रव्य और गुणार्थिक मूल नय भी होना चाहिए, परंतु जैन दर्शन में दूसरा है पर्याय। द्रव्य मूल में होता है और पर्याय अपर उसका उपदेश नहीं है। होता है। परिवर्तन के बिना कोई अपरिवर्तनीय नहीं होता इस शंका का उत्तर सिद्धसेन, अकलंक और और अपरिवर्तन के बिना कोई परिवर्तन नहीं होता। विद्यानन्द-इन तीनों तार्किकों ने दिया है। सिद्धसेन कहते परिवर्तन और अपरिवर्तन-दोनों साथ-साथ चलते हैं। हैं कि गुण पर्याय से भिन्न नहीं है। पर्याय में ही 'गुण' शब्द एक मूल में रहता है और एक फूल में रहता है। फूल हमें का प्रयोग जैनागम में किया गया है और इसलिए गुण और दिख जाता है। मूल गहरे में होता है, सामने नहीं दिखता। पर्याय एकार्थक होने से पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिक-इन दो कभी-कभी कुछेक लोग मूल को उखाड़ने का प्रयत्न करते ही नयों का उपदेश है. गणार्थिक नय का नहीं-अतः उक्त हैं। वे परिवर्तन को स्वीकार करते हैं। मूल को अस्वीकार शंका युक्त नहीं है। करते हैं। कभी-कभी कुछेक लोग मूल पर ही अपना सारा आचार्य अकलंक का कहना है—'द्रव्य का स्वरूप ध्यान केंद्रित कर देते हैं और सामने दीखने वाले फूल को अस्वीकार कर देते हैं। यह एकांगी दृष्टिकोण है। अनेकांत सामान्य और विशेष है और सामान्य उत्सर्ग, अन्वय, गुण-ये सब पर्यायवाची हैं तथा विशेष, भेद, पर्याय-ये ने दोनों को स्वीकृति दी। मूल का भी मूल्य है और फूल एकार्थक शब्द हैं। इनमें सामान्य को विषय करने वाला नय का भी मूल्य है। द्रव्यार्थिक नय है और विशेष को विषय करने वाला अनेकांतात्मक वस्तु में ही अर्थक्रियाकारित्वपर्यायार्थिक नय है। सामान्य और विशेष इन दोनों का अपृथक सिद्धरूप समुदाय द्रव्य है। इसलिए गुण विषयक जं वत्थु अणेयंतं तं चिय कज्जं करेइ णियमेण । भिन्न तीसरा नय नहीं है, क्योंकि नय अंशग्राही है और बहुधम्मजुदं अत्थं कज्जकरं दीसए लोए।। 225 ।। प्रमाण समुदायग्राही अथवा गुण और पर्याय अलग-अलग जो वस्तु अनेकांतस्वरूप है वही नियम से कार्यकारी नहीं है। गुणों का नाम ही पर्याय है, अतः उक्त दोष नहीं है। होती है, क्योंकि बहुत धर्मों से युक्त अर्थ ही लोक में सिद्धसेन और अकलंक के इस समाधान के बाद फिर कार्यकारी देखा जाता है। किंतु एकांतरूप द्रव्य लेश मात्र भी प्रश्न उपस्थित हुआ कि यदि गुण और पर्याय दोनों एक कार्य करने में समर्थ नहीं होता और जब वह कार्य नहीं कर ::::::::::::::::::HHHHHHHHHH स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 | अनेकांत विशेष. 131 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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