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________________ ਫਨੀਰ ਤ साधना का सत्य यह जो दिया लिए तुम चले खोजने सत्य, बताओ क्या प्रबंध कर चले कि जिस बाती का तुम्हें भरोसा वही जलेगी सदा अकंपित, उज्ज्व ल एकरूप, निधूम । क्या हमीं रहे? जागरण-क्षण रूप रूप रूप हम पिघले विवश बहे। तब उसने जो सब रिक्तों में भरा हुआ है अपने भेद कहे। सत्य अनावृत के वे जिसने वार सहे क्या हमीं रहे? बरसों की मेरी नींद रही। बह गया समय की धारा में जो, कौन मूर्ख उसको वापस मांगे? मैं आज जागकर खोज रहा हूं वह क्षण जिससे मैं जागा हूं। जीवन-छाया प्राप्ति स्वयं पथ भटका हुआ खोया हुआ शिशु जुगनुओं को पकड़ने को दौड़ता है किलकता है : 'पा गया! मैं पा गया!' पुल पर झुका खड़ा मैं देख रहा हूं अपनी परछाहीं सोते के निर्मल जल परतल पर, भीतर नीचे पथरीले-रेतीले थल पर : अरे, उसे ये भेद-भेद जाती हैं कितनी उज्ज्वल रंगारंग मछलियां! एक हवा-सी बार-बार द्वारहीन द्वार जैसे अनाथ शिशु की अर्थी को ले जाते हैं लोग : उठाए गोद, मगर तीखी पीड़ा के बोध बिना, वैसे ही एक हवा-सी बार-बार ढोती स्मृतियों का भार थकी-सी मुझमें होकर बह जाती है। द्वार के आगे और द्वार: यह नहीं कि कुछ अवश्य है उनके पारकिंतु हर बार मिलेगा आलोक झरेगी रस-धार। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 124. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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