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________________ अनेकांतवाद : समन्वय का आधार प्रौ. Cडॉ.) प्रैम सुमन जैन HOOpects विश्व की तमाम चीजें अनेकांतमय हैं। अनेकांत का अर्थ है नानाधर्म । अनेक यानी नाना और अंत यानी धर्म और इसलिए नानाधर्म को अनेकांत कहते हैं। अतः प्रत्येक वस्तु में नानाधर्म पाए जाने के कारण उसे अनेकांतमय अथवा अनेकांतस्वरूप कहा गया है। अनेकांतवाद स्वरूपता वस्तु में स्वयं है-आरोपित या काल्पनिक नहीं है। एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो सर्वथा एकांतस्वरूप (एकधर्मात्मक) हो। उदाहरणार्थ यह लोक, जो हमारे और आपके प्रत्यक्ष गोचर है, चर और अचर अथवा डीय और अडीव-इन दो द्रव्यों से युक्त है, वह सामान्य की अपेक्षा एक होता हुआ भी इन दो द्रव्यों की अपेक्षा अनेक भी है और इस तरह वह अनेकांतमय सिद्ध है। गवान महावीर ने ज्ञान के भेद-प्रभेदों का जो अतः प्रत्येक वस्तु का ज्ञान सापेक्ष रूप से हो सकता है। 'प्रतिपादन किया, उसके द्वारा आत्मा के क्रमिक पदार्थों का ज्ञान करने के दो साधन हैं—प्रमाण एवं नय। विकास का पता चलता है तथा इस वस्तुस्थिति का भी भान जब हम केवलज्ञान जैसे प्रामाणिक ज्ञान के अधिकारी होते हैं होता है कि हम ज्ञान की कितनी छोटी-सी किरण को पकड़े तब वस्तु को पूर्णरूपेण जानने की क्षमता रखते हैं। किंतु बैठे हैं, जबकि सत्य की जानकारी सूर्य-सदृश प्रकाश वाले जब हमारा ज्ञान इससे कम होता है तो हम वस्तु के एक ज्ञान से हो पाती है। महावीर ने इस क्षेत्र में एक अद्भुत कार्य अंश को जानते हैं, जिसे नय कहते हैं। लेकिन जब हम वस्तु और किया। उनके युग में चिंतन की धारा अनेक टुकड़ों में को जानकर उसका स्वरूप कहने लगते हैं तो एक समय में बंट गई थी। वैदिक परंपरा के अनेक विचारक थे तथा उसके एक अंश को ही कह पाएंगे। अतः सत्य को सापेक्ष श्रमण-परंपरा में 6-7 तीर्थंकरों का अस्तित्व था। प्रत्येक मानना चाहिए। अपने को इस परंपरा का 24वां तीर्थंकर प्रमाणित करने में उस युग में महावीर की इस बात से अधिकांश लोग लगा था। ये सभी विचारक अपनी दृष्टि से सत्य को सहमत नहीं हो पाए। लोगों को यह देखकर आश्चर्य होता पूर्णरूपेण जान लेने का दावा कर रहे थे। प्रत्येक के कथन में कि यह कैसा तीर्थंकर है, जो एक ही वस्त को कहता है-है दृढ़ता थी कि सत्य मेरे कथन में ही है, अन्यत्र नहीं। इसका और कहता है नहीं है। अपनी बात को भी सही कहता है परिणाम यह हुआ कि अज्ञानी एवं अंधविश्वासी लोगों का और जो दसरों का कथन है उसे भी गलत नहीं मानता। इस कुछ निश्चित समुदाय प्रत्येक के साथ जुड़ गया था। अतः आश्चर्य के कारण उस युग में भी महावीर के अनयाई उतने प्रत्येक संप्रदाय का सत्य अलग-अलग हो गया था। नहीं बने, जितने दसरे विचारकों के थे। क्योंकि व्यक्ति तभी महावीर यह सब देख-सुनकर आश्चर्य में थे कि सत्य अनुयाई बनता है, जब उसका गुरु कोई बंधी-बंधाई बात के इतने दावेदार कैसे हो सकते हैं? प्रत्येक अपने को ही कहता हो। जो यह सुरक्षा देता हो कि मेरा उपदेश तुम्हें सत्य का बोधक समझता है, दूसरे को नहीं। ऐसी स्थिति में निश्चित रूप से मोक्ष दिला देगा। महावीर ने यह कभी नहीं महावीर ने अपनी साधना एवं अनुभव के आधार पर कहा कहा। इस कारण उनके ज्ञान और उपदेशों के वही श्रावक कि सत्य उतना ही नहीं है, जिसे मैं देख या जान रहा हूं। यह बन सके जो स्वयं के पुरुषार्थ में विश्वास रखते थे एवं वस्तु के एक धर्म का ज्ञान है, एक गुण का। पदार्थ में अनंत बुद्धिमान थे। महावीर जैसा गैरदावेदार आदमी ही नहीं हुआ गुण एवं अनंत पर्याएं हैं। किंतु व्यवहार में उसका कोई एक इस जगत में। उनका एकदम असांप्रदायिक चित्त था। इसी स्वरूप ही हमारे सामने आता है। उसे ही हम जान पाते हैं। कारण वे सत्य को विभिन्न कोणों से देख सके हैं। महावीर H ARRAIMIRRIE स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 110. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
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